“जो आज्ञा माँ, इसके लिए हमें नित्या देवियों की सहायता भी लेनी होगी। जैसे ही बाघासुर आघात करने के लिए सामने प्रकट होगा, उसको हम पशुपति पाश सिद्धि से बांध लेंगे।” ऐसा कहते हुए देवी वामकेशी ने कुछ मंत्रों का उच्चारण करके फिर से शंख नाद किया और नाद करते हुए अपने बाएँ हाथ से कुछ मुद्रायों का प्रदर्शन किया। जिस से सभी नित्या देवियों को आगे के नेतृत्व का पता चल गया और वे बाघासुर के अगले प्रहार के लिए सावधान हो गयी।
लेकिन बाघासुर, देवी वामकेशी के माया कौशल से अनभिज्ञ वैसे ही प्रहार करके अलोप हो रहा था। अचानक उसने देखा कि माँ जगदंबा सहित सभी देवियाँ उसके प्रहार से मूर्छित होकर रणभूमि में गिर गयी। केवल देवी वामकेशी रणभूमि में स्थित थी और उसको ललकार रही थी।
बाघासुर युद्ध को अंतिम परिणाम देने के लिए रणभूमि में प्रत्यक्ष हो गया और फिर उसके आश्चर्य की सीमा ही ना रही जब सभी नित्या देवियों को उसने अपने ही चारों ओर खड़ा पाया। इस से पहले कि वो किसी पर प्रहार करता। सभी नित्या देवियों ने उसकी ओर अपने बाएँ हाथ से एक ही मुद्रा का प्रदर्शन किया। सभी के हाथों से सूर्य के समान असंख्य उज्ज्वल किरणें निकल रही थीं। देवियों ने महादेव की दिव्य पशुपति पाश सिद्धि का प्रयोग किया था। इस पाश के कारण बाघासुर हिल भी नही पा रहा था और ज़ोर ज़ोर से चिंघाड़ रहा था।
अवसर देखते ही वामकेशी ने माँ जगदंबा की ओर अपने नेत्र से संकेत किया। जिस से क्षण भर में दो तीर एक साथ चले। एक तीर माँ जगदंबा ने बाघासुर के दिव्य कुण्डलों को केंद्रित करके चलाया और दूसरा तीर देवी वामकेशी ने बाघासुर की सिद्ध रुद्राक्ष मालायों को निशाना बना कर चलाया। दोनो तीर अपने अपने निशाने पर लगे। एक ही क्षण में बाघासुर दिव्य कुण्डलों और सिद्ध मालायों के कवच से विहीन हो गया। अभी वह कुछ और समझ पाता, जैसे ही कुंडल और मालाएँ उसके शरीर से अलग हुई, उसी क्षण उसका मुख और आधा शरीर पुनः उसके पुराने सिंह स्वरूप में परिवर्तित हो गया। उसका दिव्य महादेव जैसा स्वरूप पूरी तरह से नष्ट हो चुका था। इसी के साथ उस की कपट से अर्जित की गयी वाणी और बुद्धि विद्या भी नष्ट हो गयी। बाघासुर की महादेव जैसी सुडोल बाज़ुएँ, सिंह की आगे की दो टांगों में बदल चुकी थीं।
दूसरे ही क्षण फिर से माँ जगदंबा और देवी वामकेशी की तरफ़ से दो तीर विद्युत गति से एक साथ, एक ही निशाना साधे निकले। इस बार यह दोनो तीर बाघासुर की पहनी हुई दिव्य अमोघ बाघछाल पर लगे। बाघछाल पर बाण लगते ही बाघछाल हवा में उछल गयी और इस दिव्य कवच के अलग हो जाने से, बाघासुर सम्पूर्ण सिंह स्वरूप में आ गया। अब तक उसने जो भी अर्जित किया था, वह सारा नष्ट हो चुका था। उसका दिव्य महादेव स्वरूप, अमोघ कवच और एक वीर पुरुष का अस्तित्व सब नष्ट हो चुके थे।
लेकिन अब भी वह एक सिंह की तरह वो आक्रोश में था। देवी वामकेशी पर अपना पूरा बल लगा कर बाघासुर अपने पंजे से प्रहार करने के लिए हवा में उछला। इस से पहले वो वार करता, देवी वामकेशी ने हवा में उछल कर अपने त्रिशूल को उसके मस्तक में घोप दिया। जिस से बाघासुर पीड़ा से चिंघाड़ता हुआ भूमि पर गिर गया।
उसको भूमि पर तड़पता देख माँ जगदंबा दया करके उसके पास पहुँची और बाघासुर के मस्तक पर हाथ रखा।
“माँ, क्या आपकी सेवा की इच्छा रखने का परिणाम मृत्यु को प्राप्त करना है?” पीड़ा से कहारते हुए बाघासुर ने कहा
“नही पुत्र, तुम्हारी इच्छा तो बहुत उच्च थी। लेकिन उस इच्छा को पूर्ण करने का मार्ग उतना ही निम्न था। यह उसी का परिणाम है। परंतु तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। इस देह त्याग के बाद फिर से तुम्हारा एक सिंह की योनि में जन्म होगा और तब प्रकृति के विधान अनुसार तुम मेरे प्रिय वाहन बनोगे। अभी मन के क्लेश को मिटा शांतिपूर्वक इस देह का त्याग करो और नए शरीर को प्राप्त हो।” माँ ने उसके शीश पर प्रेम से हाथ फेरते हुए कहा
देवी जगदंबा से ऐसा प्रेम भरा आशीर्वाद और स्पर्श पा कर बाघासुर के नेत्रों से जल गिर रहा था और एक क्षण में ही उसकी देह शांत हो गयी।
यह सारा दृश्य देवी वामकेशी दूर से ही देख रही थी। और देवी वाम केशी के नेत्र भी जल से भरे हुए थे। माँ ने बहुत ही प्रेम से देवी वामकेशी को आलिंगन करने के लिए उसकी तरफ़ अपनी भुजाएँ फैलायी। देवी वामकेशी भी अपनी सुंदर भुजाएँ फैलाती हुई आँधी जैसे माँ जगदंबा की ओर दौड़ी। माँ और देवी वामकेशी के केश इस तेज आँधी में सूर्य की किरणों के समान फ़ैल गए थे। और अचानक एक ही क्षण में माँ ने पाया कि आँधी एक तेज हवा का झोंका बन कर माँ में ही कहीं विलीन हो गयी। माँ की बाँहें फ़ैली ही रह गयी और देवी वामकेशी माँ में लुप्त हो चुकी थी। देवी वामकेशी को उनके अस्तित्व में ना पा कर माँ इधर उधर भागती हुई, बार बार ‘देवी वामकेशी’ कह कर चिल्लाने लगी। माँ को उनके ऐसे विलीन होने की आशा बिल्कुल नही थी। माँ की यह दशा देख कर सभी नित्या देवियों के नेत्रों में भी झर झर अश्रु बहने लगे।
माँ रोते हुए कह रही थी, “अभी तो सब अच्छा हो रहा था। अभी तो मैं काली स्वरूप के बाद संभली थी। वामकेशी, यह आपने क्या किया? कुछ समय और तो दिया होता!”
इधर तो माँ विलाप कर रही थी और दूसरी तरफ़ नगर में बाघासुर के वध का उत्सव नगाड़े बजा कर मनाया जा रहा था। सभी नित्यादेवियाँ, उदास माँ को महादेव के सभा कक्ष तक लेकर आयीं।
“महादेव, यह क्या०००” महादेव को देखते से ही माँ ने अश्रु भरे अपने नेत्रों को बंद करके कहा
“आयिए , देवी वामकेशी” महादेव ने गम्भीरता से कहा। महादेव के मुख से यह शब्द सुन कर माँ एक दम से सन्न रह गयी, जैसे पल भर में उन्हें सब ज्ञात हो गया हो।
“देवी वामकेशी कोई और नही, बल्कि आप ही हो, वाराणने। यह शोक करने का अवसर नही है। आपको पूर्ण ज्ञात है कि यह मात्र आपकी एक सुंदर लीला का पड़ाव समाप्त हुआ है। आपके काली स्वरूप के अवतरण से लेकर आपके देवी वामकेशी के अवतरण तक, समस्त ब्रह्मांड को आपके दिव्य स्वरूप, आपकी लीला और आपकी कृपा के दर्शन प्राप्त हुए है। इस लीला ने आपके कितने ही रहस्यों को खोला है। समस्त ब्रह्मांड को आपको निकटता से जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। और आपके रहस्यों को केवल आपकी कृपा से ही जाना जा सकता है। आप अपने हृदय में केवल करुणा और प्रेम को धारण करतीं है। आपकी प्रसन्नता से जीवन संशय रहित हो जाता है और हर क्षण एक दिव्य आनंद का आभास होता है। आप से प्राप्त आशीर्वाद से भौतिक समृद्धि के बाद अतुलनीय आध्यात्मिक दिव्य निधि भी प्राप्त होती है। और अंत में जीव आप ही में विलीन होकर आपके अस्तित्व में रम जाता है।
हे वाराणने, सभी पर अपनी कृपा कीजिए और सबके मन, वाणी और बुद्धि में निवास कीजिए।”
“महादेव, मैं अति धन्य हुँ जो मेरे जीवन में आप है। यह सत्य है कि आप से बढ़ कर कोई वैरागी नही लेकिन यह भी सत्य है कि प्रेम की पराकाष्ठा भी आप ही पर आकर समाप्त होती है। आप ही से मैं हुँ। जो कोई भी मेरी पूर्ण कृपा की कामना रखता है, उसे आपकी भी प्रसन्नता अवश्य प्राप्त करनी होगी क्यों की शिव और शक्ति भिन्न नही है। आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है।” माँ ने महादेव के दायें चरण के अंगुष्ठ पर अपना शीश रखते हुए कहा।
“तथास्तु” महादेव ने मुस्कुराते हुए कहा, “वाराणने, मैं आपकी लीला समाप्त होने की ही प्रतीक्षा कर रहा था। मैं अभी पूर्ण एकांत में रहने के लिए इच्छुक हुँ और कैलाश पर कुछ समय व्यतीत करना चाहता हुँ। अगर आपकी आज्ञा…”
“महादेव, आज्ञा नही। यह आपका अधिकार है। मुझे पूर्ण ज्ञान है कि एकांत आपके लिए एक आहार जैसे है। आप हमें आज्ञा कीजिए।”
“फिर मैं बिना समय नष्ट किए, कल ही कैलाश के लिए प्रस्थान करना चाहता हुँ। केवल आपका प्रेम ही मुझे एकांत से वापिस आने के लिये बाधित करता है।” महादेव ने माँ जगदंबा से मुस्कुराते हुए कहा
और इस प्रकार देवी जगदंबा ने महादेव को प्रसन्नचित्त से एकांत के लिए विदा किया। और महादेव भी अपनी करुणामयी शक्ति की लीला का स्मरण करते हुये, अपने एकांत के लिए प्रस्थान कर गए।
लीला करना श्री भगवान/श्री माता की अति कृपा का प्रतीक है क्यों कि इस से भगवान अपने भक्तों को अपने कई स्वरूपों से अवगत करवाते है। और इससे भक्ति का स्वरूप और अधिक निखर कर सामने आता है।
इति तांडव कथा सम्पूर्णम् !!!
सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।
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Dear Readers
Today’s episode is the last episode of the ‘Tandav’ series. Please accept my heartfelt thanks to all of you for giving your precious time to this series. I started the series with only 11000 words that seemed to be befitting a length at that time but because of your encouraging, insightful and motivating feedback, I am closing this series with up to 50000 words.
This journey has been an emotional roller coaster.
I would specially like to express my humble gratitude to Dipti Om and Revathi Om for sharing their editorial point of view. Thanks to Mohit Om and Tejus Om for their valuable insights as the men behind the scenes.
Navjot Gautam for editing my posts. My deepest thanks to Nikunj Om for her technical support in setting the images in the post.
Last but never the least, to our Almighty without whose grace I would have never dared to imagine myself writing anything on Maa Jagadamba and Mahadev.
May Devi Maa and Mahadev bless me with the service and Bhakti of my Almighty.
My obeisance at the Divine Feet of Mother Divine. I was but Her small and ignorant girl who scribbled something to impress Her, written for Her in Her love and devotion.
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