सबसे पहले बलि ही माँ के दर्शन को पहुँचा। उसने माँ के महल के बाहर लगे घंटे को ज़ोर-२ से बजाना आरम्भ किया। माँ सहित सभी सेविकाएँ आश्चर्य में आ गये। माँ को लगा कि शायद बलि महादेव के दर्शन के लिए आया होगा, गल्ती से माँ के द्वार का घंटा बजा रहा था। जब बलि से पूछा गया तो उसने बताया कि वो सिर्फ़ माँ के दर्शन करने के हेतु ही आया था।

माँ को बलि नवजात शिशु के रूप में मानसरोवर के किनारे मिला था। देवी उसको स्वयं गोद में उठा कर चिंतामणि गृह तक लायी थी। बाद में उसका पालन पोषण माँ की देख रेख में एक संतान विहीन दम्पति ने की थी। इसलिए भी बलि का माँ पर कुछ विशेष अधिकार था।

चूँकि माँ अब बहुत समय से किसी के सम्पर्क में नही तो वैसी वेश-भूषा में भी नही थी। और उस समय माँ के केशों में कुमकुमादी तेल लगाने की तैयारी भी की जा रही थी। बलि को दर्शन देने के लिए माँ को अपना आवरण बदलना अनिवार्य था। देवी कामाक्षी, माँ के लिए बहुत खूबसूरत और भारी नक्काशी वाले वस्त्र और आभूषण लेकर आयी तो माँ ने कहा, “इतने सब की आवश्यकता नही है। बलि भूला-भटका इधर आ गया है, संकोच वश कुछ कह नही पा रहा। बस दर्शन देकर शीघ्र ही वापिस आती हुँ।”

माँ ने बहुत सादे वस्त्र पहने और सादा ऋंगार किया। पीले रंग की साड़ी पर ज़री के गुलाबी रंग की बहुत ही छोटी बूटी बनी हुई थी और बूटी के मध्य एक एक हीरा लगा हुआ था। और आभूषणों में केवल सुहाग के प्रतीक वाले आभूषण धारण किए हुए थे। बायीं नासिका में एक बड़ा हीरे का बिंदु, कुंदन और स्वर्ण से निर्मित एक छोटा मांग टिका, वैसा ही गले का हार और मंगल सूत्र, कान के कुंडल और चूड़ियाँ धारण की हुई थी। मांग में सिंदूर और कुमकुम की एक छोटी बिंदी धारण की हुई थी। चरण कमलों में केवल एक धागे जैसे स्वर्ण कि पाज़ेब धारण की हुई थी जो की पहले से ही पहनी हुई थी। चरणों में कोई महावर नही लगी हुई थी। केशों को बहुत ही सादे ढंग से चम्पा के पुष्पों से बांधा हुआ था। आज माँ से रजनीगंधा के पुष्पों जैसी ही भीनी सुगंध आ रही थी। सखियाँ और बहुत कुछ करना चाहती थी लेकिन माँ ने मना कर दिया कि बलि को माँ शीघ्र ही भेज देंगी। सभी सखियाँ मंद मंद मुस्कुरा रही थी क्यों कि वे सब महादेव की योजना से परिचित थी। 

जैसे ही बलि ने सभा गृह में प्रवेश किया तो बलि माँ को देख कर घनी उदासी में चला गया। क्यों कि माँ पहले से काफ़ी दुर्बल लग रही थी। वैसे तो माँ के श्री मुख पर कांति थी लेकिन वैसी कांति कहीं खो गयी थी, जो उन्हें अपनी माँ के श्री मुख पर देखने की आदत थी।

“माँ, हे जगदंब मात, हे सर्वेश्वरी, हे भगवती, हे करुणामयी मात, हमें क्षमा कर दीजिए। हमने अपनी माँ, हमारी आराध्य देवी का अपमान किया है। आपकी इस दशा का कारण हम है। आपने हमारे जीवन में किसी प्रकार की सुविधा की कोई कमी नही रखी। और हम ने अपने जीवन में आपको धारण ही नही किया। इस जघन्य अपराध के लिए हमें क्षमा कर दीजिए।

हे भवानी माँ, आप हमें पहले जैसे स्वरूप में ही दर्शन दें, आप हमें हमारी माँ लौटा दें। अब हम हमारे जीवन में भय और नीरसता नही चाहते। क्षमा कीजिए____क्षमा कीजिए। हे देवी प्रसन्न हो जाओ, हमारे जीवन में लौट आयो” ऐसा कह कर बलि माँ के चरण पकड़ कर एक बालक की भाँति रोने लग गया। उसके आँसुयों से माँ के चरण भीग गए।

ऐसा दृश्य देख कर सभी सेविकायों और सखियों के नेत्रों से अश्रु धारा बहने लगी। यह बहुत ज़रूरी भी था। क्यों कि जब तक बच्चे क्रूदन करके माँ को नही पुकारते, तब तक माँ भी स्वयं में मग्न रहती है। पुकारने पर ही माँ का ध्यान अपनी ओर किया जा सकता है।

माँ अपनी एक मुस्कुराहट में थीं लेकिन मौन हो गयी और नेत्र सजल हो गए। कोई माँ के नेत्रों को देख ना पाए तो माँ ने अपना मुख नीचे कर लिया और दायी ओर पास में पड़ी वसुधा मणि की ओर देखने लगी। वसुधा मणि गहरे लाल और हल्के पीले रंग की मणि थी। जिसकी रोशनी माँ के मुखारविंद पर पड़ रही थी और माँ के सजल नेत्र साफ़ साफ़ नज़र आ रहे थे। वो कुछ ऐसा लग रहा था मानो जैसे एक यज्ञ के बाद यज्ञ कुंड की अग्नि की आभा माँ के मुखारविंद पर आ गयी थी या यह भी कह सकते थे कि संध्या के सूर्य के समान माँ का श्री मुख अरुण हो गया था। माँ की बायीं नासिका के हीरे का बिंदु उसमें एक हल्की चमक की रेखा दे रहा था।

“उठो बलि, वयस्क होकर बालकों की भाँति विलाप करना शोभा नही देता।” माँ ने प्रेम से उसके शीश पर हाथ लगाते हुए कहा

“जब तक आप वचन नही देंगी, मैं आपके चरण नही छोड़ूँगा।” बलि ने माँ के चरण और कस कर पकड़ लिए।

“बिना सुने, वचन? कुछ अनुचित माँग की तो?”

“मात, मैं भी आपका ही पुत्र हुँ। भले ही आपने सारे दानवों का नाश किया हो, लेकिन इस उद्दंड की बात को सुनना भी पड़ेगा और निभाना भी पड़ेगा। पहले वचन दो”

“अच्छा वचन दिया, अब उठो और बतायो।”

“हे मात, आप कभी भी स्वयं को हमारे जीवन से वर्तमान जैसे पृथक नही करेंगी। और सभी परिस्तिथियों में हम पर अपनी कृपा बना कर रखेंगी। मेरे जीवन में आपकी कृपा के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी नही जो माँगा जा सके।” बलि ने माँ के चरण पकड़ कर ही यह वचन माँगा।

“बस यही था। मैंने सोचा शायद कहीं तुम भी शुम्भ-निशुंभ जैसे वरदान माँग रहे हो।

तथास्तु, अब अपने प्रिय लोगों के जीवन से कभी भी आलोप नही हूँगी।” हँसते हुए माँ ने बलि को आशीष दिया

“देवी माँ, हमें सत्ता नही, आपकी कृपा चाहिए। शुम्भ-निशुंभ के लिए तो दया के अतिरिक्त कोई भाव ही नही आता।” बलि ने माँ के चरणों को फिर से स्पर्श करते हुए कहा

अपार प्रसन्नता में बलि ने वही पर चिंतामणि गृह का स्थानीय नृत्य करना आरम्भ कर दिया। “जगदंब मात की जय हो!” गाता हुआ बाहर चला गया

बाहर छिपे हुए कुछ नगरवासी बलि की प्रतीक्षा कर रहे थे कि पता नही बलि की क्या दशा होगी। बलि ने सबको देखते हुए वही नृत्य करना जारी रखा और ऊँची ऊँची गाना आरम्भ कर दिया।   

बस फिर क्या था देवी माँ के महल का घंटा लगातार बजने लग गया। घंटे की ध्वनि सुन कर माँ सभा गृह से उठते उठते फिर से आसन पर विराजमान हो गयी। माँ से मिलने के लिए नगर निवासियों का ताँता लग गया।

देवी को समझ में ही नही आ रहा था कि अचानक से यह परिवर्तन कैसे हुआ? किसी को भी महादेव के दर्शन नही चाहिए थे, हर किसी को देवी के दर्शन ही चाहिए थे। महादेव तो बस मंद मुस्कान के साथ मौन होकर सब कुछ देख रहे थे।

पहले कुछ दिन तो बहुत ही समस्या हुई क्यों कि कुछ भी अनुशासित नही था और देवी इन परिवर्तनों के लिए भी तैयार नही थी। लेकिन फिर महादेवी ने अलग अलग विषयों के लिए अलग-२ दिन निश्चित कर दिए और अलग-२ देवियों की सेवा निश्चित कर दी। ताकि सारा काम सूचारु रूप से चल सके। नगरवासियों ने माँ को यज्ञ, कन्या पूजन, अपने अनुष्ठान आदि की पूर्णाहुति के लिए माँ को निमंत्रण देना शुरू किया। जप-साधनायों की पूर्णाहुति के लिए भी माँ को निमंत्रण दिया जाता था। सभी के व्यथित मन को एक दिव्य शांति मिल रही थी कि जिन देवी की पूजा वे लोग दर्शन हेतु करते थे, आज उन्हीं लोगों की पूजा-अर्चना की पूर्णाहुति के लिए माँ स्वयं आ रही थी।

इसी के चलते माँ की नवरात्र की पूजा आरम्भ हुई। क्यों कि माँ साक्षात् विराजमान थी तो एक एक वर्ष की साधना को एक एक दिन की साधना में संक्षिप्त किया गया। चैत्र और शरद मास को चुना गया। ताकि वर्ष के मध्य, ऋतुओं में जो परिवर्तन होता था, उसमें संयम से साधना की जाए। माँ की आज्ञा से तय किया गया कि सदगुणों को धारण कर जो भी जैसा भी जप-तप करेगा, माँ उसकी साधना को अवश्य फलीभूत करेंगी। चिंतामणि गृह की प्रकृति फिर से अपने सौम्य स्वरूप में वापिस आ गयी थी।

महादेव के कहने पर नगरवासियों ने माँ से मिलने की प्रथा आरम्भ तो की थी। लेकिन माँ के पास जाने पर उन्हें पता चला कि उनके जीवन में किस दिव्य ऊर्जा का अभाव चल रहा था। सब कुछ परिपूर्ण होने के बाद भी कोई आनंद में नही था। माँ से सम्पर्क में आने के बाद सभी की वही कमी पूरी हो गयी। बिना किसी कारण के प्रसन्न रहना, यह ईश्वर के किसी आशीर्वाद से कम नही होता। बस वही हाल सभी नगरवासियों का था।

“समय भी कितना बलवान होता है। कभी भद्रा हमारी व्यस्तता से नाराज़ हो जाती थी और आज हम हमारी देवी के दर्शन अभिलाषी बन कर प्रतीक्षा कर रहे है।”

To be continued…

           सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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