अपने अतीत को पीछे छोड़ते हुए

“जब आपका मुख प्रकाश की ओर होता है आपकी परछाई सदा आपके पीछे होती है…….”

“मैं स्वयं को परिवर्तित करना चाहता हूँ किन्तु मेरा अतीत मुझे परेशान करता रहता है स्वामी”, कुछ समय पूर्व एक आगंतुक ने मुझे कहा।

“मैं अपने पापों के लिए निरंतर ग्लानि का अनुभव करता रहता हूँ। मैं अपने बोझ से छुटकारा कैसे पाऊँ?”

“दो वस्तुएँ आपका अनुकरण आपकी चिता तक करेंगी,” मैंने उत्तर दिया। “अनुमान लगाना चाहेंगे?”

“मेरे कर्म?”

“और ऋणदाता”, मैंने परिहास किया।

“एक बोझा लेकर आता है व दूसरा एक थैला”।

वह कुछ बोझिल सी हँसी हँस दिये।

“एक है ऋण,” मैंने आगे कहा, “व दूसरा ऋण-वसूलने वाला”।

हमारा अदेय ऋण ही हमारा बोझा है।

और हमारे जीवन में हम हर प्रकार के व्यक्तियों को आकर्षित करते हैं, उनमें से कुछ कर्मों द्वारा जुड़े ऋणदाता हैं और वे ऋण वसूल करने का पात्र निभाते हैं। कहने का तात्पर्य यह नहीं कि अपने अतीत से पीछा छुड़ाने का कोई उपाय नहीं।

अज्ञानवश अथवा तो अहंकारवश, हम सभी ने संभवतः ऐसा कुछ उच्चारित कर दिया हुआ है, अथवा तो कार्य कर दिया हुआ है जो हम कामना करते हैं कि काश! ऐसा न हुआ होता। तदपि, गलत कर्म करके आवश्यक नहीं कि कोई बुरा ही बन जाये। प्रायः अच्छे व्यक्ति अंततः अयोग्य कार्य करते देखे जा सकते हैं, और, बुरे कहे जाने वाले व्यक्ति बहुत सा अच्छा काम भी करते हैं। एक बुरा विचार अथवा कृत्य आपको गौण नहीं कर देता। बल्कि, चेतना का निम्न स्तर तब सामने आता है जब हमारे में यह स्वीकार करने का साहस नहीं होता कि हाँ, मैंने गलत किया है और उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

अपने दोषों को अस्वीकार करना अन्य हर बात से कहीं अधिक आपके बोझ का कारण बनता है। जिस क्षण हम अपनी गलती को शिष्टतापूर्वक स्वीकार कर लेते हैं, तब हम अपने अंतःपटल से क्रोध (मुझे उस स्थिति में क्यों पड़े रहना था?) एवं ग्लानि (मैं किसी अन्य रूप से कार्य क्यों नहीं कर पाया?) की भावना को निकाल बाहर कर पाते हैं। निःसन्देह वह घटना आपके मन में एक लंबी अवधि तक चिन्हित रह सकती है, किन्तु अब उसका पुनः स्मरण आपके मन की शांति का नाश नहीं करता।

द वे ऑफ चुएंग त्ज़ु ( The Way of Chuang Tzu) में थॉमस मेर्टन ने एक अति सुंदर कथा का वर्णन किया है जिसका नाम है – फ्लाइट फ़्रोम शैडो :: एक व्यक्ति जो अपनी स्वयं की परछाई की झलक से इतना उद्विग्न  और अपने ही पद-चिन्हों से अप्रसन्न, था की वह उन दोनों से छुटकारा पाने हेतु संकल्पबद्ध हो गया। इस कार्य हेतु उसने जो मार्ग चुना वह था उन से दूर भाग जाना। तो वह उठा और लगा भागने। किन्तु जब भी वह अपना पाँव नीचे रखता तो एक पद-चिन्ह उकरित हो जाता, और उसकी परछाई तो बिना किसी कठिनाई उसके साथ साथ ही रही।

उसने अपनी असफलता का कारण इस बात को समझा कि वह तीव्र गति से नहीं भाग रहा था। तो वह तेज, और तेज भागने लगा, अविराम……, तब तक जब तक कि वह गिर नहीं गया और उसका दम ही निकाल गया।

वह व्यक्ति इस तथ्य का बोध कर पाने में विफल रहा कि यदि वह मात्र एक छायादार स्थान पर पग रखता तो उसकी परछाई स्वतः ही ओझल हो जाती, और, यदि वह शांति से एक ही स्थान पर बैठ जाता , बिना इधर उधर घूमे, तो उसके पद चिन्ह बनते ही न।

आप इस को हमारा अतीत, हमारा बोझ, हमारी परछाई, अथवा तो कुछ भी कह संबोधित करें, किन्तु सत्य यही है कि हम अपने द्वारा हो चुके कार्यों को मिटा नहीं सकते। जो शब्द हम बोल चुके अथवा जो अवांछनीय कर्म हम कर चुके हैं, हम उन्हें पुनः पलट नहीं सकते । अधिक से अधिक हम क्षमाप्रार्थी बन सकते हैं, प्रायश्चित कर सकते हैं, खेद व्यक्त कर सकते हैं, अथवा तो समय के साथ उस पीड़ा से छुटकारा पा सकते हैं। सत्य यही है कि हम जहां भी जाते हैं कमरा अतीत हमारे साथ साथ ही चलता है। केवल जब हम अंधकार में होते हैं तो ऐसे में हमारी परछाई अपने चारों ओर व्याप्त अंधकार में विलीन हो जाती है। ऐसे अंधकार में संभवतः हम कुछ क्षण के लिए अनुभव करें कि हमारे ऊपर कोई बोझ नहीं है, किन्तु वह एक भ्रांति मात्र है चूंकि हमने अभी अंधकार से छुटकारा नहीं पाया । अपितु, हमने स्वयं को प्रकाश से दूर छुपा रखा है।

एक अति उज्ज्वल कक्ष का भी एक अंधेरा कोना होता ही है, भले ही वह कितना भी न्यूनतम क्यों न हो। इस प्रकार, सर्वोत्तम प्रकार से जिए गए जीवन के वक्ष में भी किसी न किसी प्रकार का कोई अंधकार छुपा रहता ही है। वह है हमारी परछाई, हम उससे छुटकारा नहीं पा सकते और ऐसा कोई कारण नहीं बनता कि हम उससे भयभीत रहीन। हम प्रकाश के सत्व हैं, और इसीलिए हमारे अस्तित्व से परछाई को पृथक नहीं किया जा सकता। इस बात का कोई महत्त्व नहीं कि हमारी परछाई कितनी बड़ी अथवा गहरी है, महत्त्वपूर्ण है कि वह है कहाँ? हमारे सामने अथवा हमारे पीछे।

अपनी परछाई से पीछा छुड़ाने का एक मार्ग, जैसा चुयांग त्ज़ु ने प्रतिपादित किया, है कि छायादार स्थान का आश्रय लिया जाये। ईश्वर-कृपा रूपी वृक्ष वह छाया प्रदान कर सकता है, साथ ही सत्य एवं क्षमा रूपी वृक्ष भी। इन वृक्षों कि सुघढ़ छाया अपने आश्रय में आए प्रत्येक व्यक्ति की छाया को, अति कोमलता पूर्वक, स्वयं में विलीन कर लेती है।

एक अन्य मार्ग जो बहुधा अधिक लुभावना होता है वह है अंधकार में रहना और उसी में जीना। हालांकि अंधकार में संभवतः आप परछाई न देख पाएँ, किन्तु आप कुछ और भी नहीं देख पाएंगे…, न कोई सुंदरता, न उजाला। हम हमारे आसपास व्याप्त हर दृश्य, हर वस्तु, विषय, व्यक्ति से स्वयं को काट लेते हैं। भय, मानसिक व्यामोह, अपराध बोध एवं अन्य भावों के कारणस्वरूप अपना सम्पूर्ण जीवन अंधकार में ही बिता देते हैं, केवल उस एक परछाई से बचने हेतु।

जब हमारी परछाई हमारे सामने होती है केवल उस समय ही आगे का मार्ग अंधकारपूर्ण प्रतीत होता है। और, हमारी परछाई हमारे आगे तब ही होती है जब हम प्रकाश की ओर अपनी पीठ कर लेते हैं। जब आप रोशनी की दिशा में चलते हैं तो आपकी परछाई आपके पीछे चली जाएगी। अब वह आपके मार्ग को अंधकार से धुंधला नहीं करेगी।

और यही एक मात्र उपाय है जो मैं जानता हूँ जिसके द्वारा हम अपना बोझा समाप्त कर सकते हैं : स्वयं एवं दूसरों के प्रति करुणा व आशा से भरपूर प्रकाश की दिशा में यात्रा प्रशस्त करना। यही मात्र एक मार्ग है अपनी परछाई को पीछे छोड़ने का। अतीत में हुई गलतियों के लिए स्वयं को क्षमा करें। सहज रहें। यह आपके लिए बहुत सहायक होगा, और अन्य लोगों के प्रति सहायक होने में भी आपका सहयोगी होगा। और, आने वाले समय में यही एक उपयोगी वस्तु हो सकती है।

यदि आप चलते रहते हैं तो आपके पदचिन्ह आपके पीछे रहेंगे। रुकें, और सोचें तो आप सीधा उनके ऊपर होते है। कुछ ऐसा दावा करना कि हम तो हिमालय की ताजा हिम की भांति पूर्णत: स्वच्छ, दाग रहित हैं, संभव नहीं। जीवन में कभी न कभी हम में से प्रत्येक ने दूसरों पर पत्थर फेंके ही होते हैं। कभी कभी हम पत्थर खाने की स्थिति में भी रहे हैं। अंततोगत्वा, इस सब का अधिक मूल्य नहीं, यदि हम यह सब पीछे छोड़ते चलें।

एमाम जमाल रेहमान की पुस्तक “द कॉमिक टीचिंग्स ऑफ मुल्ला नसरुदीन में मैंने एक हास्यास्पद लघु कथा पढ़ी। कुछ संपादित करते हुए :

एक माँ अपने क्रोधी स्वभाव के युवा पुत्र को मुल्ला के सम्मुख ला शिकायत करती है कि वह उसके विद्रोही तौर तरीकों से थक चुकी है।

“कृपया आप कुछ करें, ताकि इसके मन में थोड़ा भय उपजे”, वह बोली।

“अभी लो”, मुल्ला ने पूर्ण विश्वास से कहा, “यह इसी क्षण से एक गाय की भांति दब्बू/भोला बन जाएगा”।

मुल्ला ने लड़के की आँखों में आँखें गाड़, अति उग्रतापूर्ण ढंग से उसे देखा और आज्ञा दी कि वह अपनी माँ की बात सुना करे। अपने चेहरे पर अति विकृत भाव भंगिमा लाते हुए वह अति भीषण रूप से गरजा। यह सब इतना भयावह था कि वह माँ बेहोश हो गई और मुल्ला स्वयं भी कक्ष से बाहर की ओर दौड़ गया। जब माँ को होश आया तो उसने मुल्ला को झिड़का, “मैंने तुम्हें मेरे बेटे को डराने को कहा था, न कि मुझे!”

“मोहतरमा!”, मुल्ला ने उत्तर दिया, “जब आप भय को निमंत्रण देते हैं तो वह हर किसी को भस्म कर देता है। उसके लिए कोई उसका प्रिय नहीं। मैं स्वयं इतना भयभीत हो गया था कि मुझे भी वह कक्ष छोड़ कर जाना पड़ा”।

भय की ही भांति हमारी परछाई के भी अपने कोई प्रिय-अप्रिय नहीं होते। जब जब एक परछाई बनती है तो एक अंधकारमय वर्ण स्वतः उदय हो जाता है। इसीलिए यह और अधिक महत्वपूर्ण है कि हम न केवल प्रकाश की ओर मुख कर उसी दिशा में चलने का प्राण लें, अपितु अन्य लोगों को भी ऐसा करने की प्रेरणा दें। चूंकि हो सकता है हम मध्यांतर के सूर्य की भांति चमक रहे हों, किन्तु यदि हमारे चारों ओर के लोग अंधकार में जी रहे हैं तो ऐसे में उनकी परछाई हमारे मार्ग में पड़ेगी। प्रकाश बनो और प्रकाश फैलाओ। किसी उत्तम ध्येय की ओर बढ़ना, अच्छाई व परोपकार की दिशा में चलना ही प्रकाश में चलना है।

अपने हृदय के प्रकाश को चारों ओर व्याप्त असीम, अपार प्रकाश में विलीन होने दो। तब अंधकार के कोई मायने न रहेंगे। यदि कुछ होगा तो यह कि वह आपके जीवन को अधिक गहराई, एक ध्येय एवं अर्थ प्रदान करेगा।

चलते चलो… प्रकाश की ओर।