।जय श्री राधे।।
।।जय श्री हरि।।

आशा करते हैं आप सब कुशल मंगल होंगे । पिछले कल मैं गाड़ी में बैठा था और किसी मित्र से बात कर रहा था तो उसी दौरान एक चिंतन हुआ। सोचा आप सभी के साथ साझा करूं। रामायण से स्मरण में आई हनुमान और जामवंत की कहानी। किस प्रकार एक श्राप के कारण हनुमान अपनी सारी शक्तियों को भूल गए और पुनः जामवंत जी द्वारा स्मरण करने पर उन्हें अपनी शक्तियों का स्मरण हो आया।

बहुत सारी स्टोरी पोस्ट मैंने पढ़ी गूगल में जिसमें कहा था कि आप किसी हनुमान किया जामवंत बनिए उसे राह दिखाए या कोई आपके जीवन में जामवंत बन के आएगा। लेकिन कोई दूसरा क्यूं? क्यों ना हम खुद ही अपने जामवंत बने। जैसे स्वामी जी कहते हैं कि अपने भीतर के गुरु को छ
जगाओ। गुरु को जगाने का मतलब ये नहीं कि गुरु सो रहे हैं। आपको समझना है कि गुरु तो सर्वत्र व्याप्त है तो हमें शिक्षा देने के लिए वह कुछ भी, कहीं भी कर सकते हैं। किसी दूसरे के आश्रित न रहकर हम अपने भीतर की जामवंत को जगाएं और अपने आप को प्रेरित करें। अपने आप को आगे बढ़ाने के लिए, अपने पथ पर चलने के लिए, हमें किसी दूसरे आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए।

आप सब कुछ कर सकते हैं। आपने बहुत कुछ अभी तक किया है, अनेकों मुसीबतों का सामना किया। क्या यह वाली मुसीबत जो आ रही है उनसे बड़ी है? क्या इसका सामना नहीं कर सकते? क्यों नहीं कर सकते? क्या कमी है? आपने अपने आप को उत्साह से भरिए। प्रतिपल साधन पथ पर आगे बढ़ते रहें।

कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति पर निर्भर ना रहे। निर्भर रहोगे तो आप शायद आशाओं के चक्कर में फस जाओगे। आशाएं ही दुख का मूल कारण है इसलिए आशाओं के बंधन को तोड़ने के लिए, आशा मुक्त होने के लिए आपको किसी अन्य पर आश्रित नहीं रहना है। आपको आत्मनिर्भर बनना पड़ेगा।

रामचरितमानस की वह चौपाई जिसमे जामवंत ने हनुमान जी को उनकी शक्तियों का स्मरण कराया:~

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।

कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्बताकारा।।

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहिं नाघउँ जलनिधि खारा।।

सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।
जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।।

एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।
तब निज भुज बल राजिवनैना। कौतुक लागि संग कपि सेना।।

भावार्थ:~

ऋक्षराज जामवंत ने श्री हनुमानजी से कहा- हे हनुमान्‌! हे बलवान्‌! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो।।

जगत्‌ में कौन सा ऐसा कठिन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। श्री रामजी के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। यह सुनते ही हनुमान्‌जी पर्वत के आकार के हो गए॥

उनका सोने का सा रंग है, शरीर पर तेज सुशोभित है, मानो दूसरा पर्वतों का राजा सुमेरु हो। हनुमान्‌जी ने बार-बार सिंहनाद करके कहा- मैं इस खारे समुद्र को खेल में ही लाँघ सकता हूँ॥

और सहायकों सहित रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हूँ। हे जामवंत! मैं तुमसे पूछता हूँ, तुम मुझे उचित सीख देना।।

(जामवंत ने कहा-) हे तात! तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो। फिर कमलनयन श्री रामजी अपने बाहुबल से (ही राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएँगे, केवल) खेल के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेंगे।।

।।जय श्री हरि।।

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