अपने वचन का सम्मान रखना

“अपने वचन के निर्वाह हेतु सच्चाई व अनुशासन की आवश्यकता होती है जो हम प्रकृति से सीख सकते हैं।”

“लेफ्टिनेंट”, मेजर ने चेतावनी दी, “आप पुनः वहाँ नहीं जा रहे”।

“श्रीमान, कृपया मुझे क्षमा करें,” लेफ्टिनेंट ने कहा, “मुझे जाना ही होगा”।

“आप मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हैं। और, इसके साथ ही, वह तो अब तक मृत होगा!”

“मुझे क्षमा करें श्रीमान, किन्तु अपने मित्र को बचाने मुझे वहाँ पुनः जाना ही होगा”।

अनुश्रुति है कि यह एक वास्तविक घटना है। वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना की एक टुकड़ी शत्रु पक्ष के क्षेत्र में, गोलीबारी के बीच फंस गई। एक सैनिक को छोड़, जो संघातिक रूप से घायल हो गया था, शेष समूह वहाँ से सुरक्षित निकल आने में सफल हो गया। जॉन नाम का एक लेफ्टिनेंट अपने उस मित्र सैनिक की सहायतार्थ पुनः वहाँ जाने पर अडिग था। मेजर ने उसे ऐसा करने से मना किया किन्तु जॉन अपनी बात पर दृढ़ था।

मेजर ने चिल्ला कर कहा, “तुम्हें सेना के कोड की जानकारी है? मेरी आज्ञा है कि आप वहाँ नहीं जा सकते, अन्यथा आप इसे सेना में अपना अंतिम कार्य दिवस समझें”।

“मेजर साहिब, आप चाहें तो मुझे सेना से निष्कासित कर सकते हैं, किन्तु मुझे जाना ही होगा”।

“लेफ्टिनेंट, तुम्हें इस बात का जीवनपर्यंत पछतावा रहेगा”।

बिना और एक शब्द कहे, सभी नियमों का उल्लंघन व अपने उच्चाधिकारी की आज्ञा की उपेक्षा करते हुए वह नवयुवक उस प्रतिरक्षित क्षेत्र में पुनः जा घुसा। रेंगते रेंगते वह अपने मित्र तक पहुँच गया, जो अपने अंतिम श्वास ले रहा था। दोनों ने कुछ शब्दों का आदान-प्रदान किया, जो उस गोलीबारी के तीव्र शोर में शायद नाम-मात्र को ही सुनाई दिये हों। उन कठिन परिस्थितियों के बावजूद जॉन ने अपने मित्र को एक बोरी की भांति अपने कंधे पर लादा व अति सावधानीपूर्वक उस कठिन मार्ग एक बार पुनः पार कर लिया। किन्तु जब तक वे अपने कैंप तक लौट पाये, उसका मित्र अपने श्वास पूर्ण कर चुका था।

“मैंने तुम्हें क्या कहा था?”, मेजर साहिब चिल्लाये। “क्या एक मृत व्यक्ति के लिए अपनी जान जोखिम में डालना श्रेयस्कर था?”

“सर, वह एक मृत व्यक्ति नहीं, एक शहीद है”, लेफ्टिनेंट ने विनय पूर्वक कहा। “मैं इस बात से अतिप्रसन्न हूँ कि मैं वापिस गया, क्योंकि मेरा साथी मित्र, अपने अंतिम क्षणों में, मेरा हाथ थामे, केवल एक ही बात दोहराता रहा”।

एक क्षणिक निस्तब्धता चारों ओर व्याप्त गई और कुछ देर के लिए मेजर साहिब भी नरम पड़ गए।

“सर!, इसने बोला कि मैं जानता था कि तुम मेरे लिए लौट कर अवश्य आओगे। बस यही इसके अंतिम शब्द थे। और, मेरे लिए यह एक वाक्य संसार की हर वस्तु से कहीं बड़ा है”।

हम में से अधिकांश, अपने जीवन को व अपने सम्बन्धों को, दिये अथवा मिले हुए वचनों पर ही निर्धारित कर आगे बढ़ते हैं। संभवतः, वचन या आशा, दोनों शब्दों का समान अर्थ है, चूंकि हमारे परम स्नेही जन हमारे द्वारा दिये वचनों पर ही अपनी सारी आशाएँ टिका कर रखते हैं। किसी प्रकार का वचन देना अथवा प्रतिज्ञा करना – यहाँ तक तो सुलभ है फिर वह चाहे नव वर्ष का संकल्प हो अथवा विवाह की पवित्र वेदी पर बोले गए वचन; कठिन है उन्हें निभाना। किन्तु, हमें उन्हें निभाना अवश्य चाहिए, चूंकि जब जब हम अपने वचन पर अटल रहते हैं तब तब हम कुछ ओर आगे बढ़ते जाते हैं। यह न केवल हमारी संकल्प शक्ति को एक अद्भुत प्रोत्साहन देता है, अपितु हमें अधिक आध्यात्मिक भी बनाता है।

निःसन्देह, अपने वचनों को निभाना अतिशय थकान भरा हो सकता है, विशेष रूप से ऐसी स्थिति में जब भीतर एक युद्ध चल रहा हो जहां आपका दिमाग किसी एक कार्य की ओर हो और आपका दिल किसी और बात में हो; जब भावनाएँ तर्क को हरा दें। इतना कहने के उपरांत, हो सकता है जिम में बिताया एक घंटा अथवा रसोईघर में भोजन पकाना भी थकान भरा हो, तथापि यदि हमें उत्तम स्वास्थ्य व ताजा भोजन चाहिए तो हम वह सब करते ही हैं जो कि हमें करना चाहिए। अपने वचन को निभाना इससे भिन्न नहीं। हो सकता है वह सब आनंदप्रद अथवा इच्छित न हो, किन्तु, अंततोगत्वा, यह हमें स्वाभिमान व संतृप्ति के विशुद्ध भावों से भरपूर कर देता है।

अपने दिल पर हाथ रख यह कह पाना कि – मैं जो कुछ भी कर सकता था मैंने यथासंभव वह सब किया व मैं अपने वचनों के प्रति समर्पित रहा – यह न केवल आपके आत्म-सम्मान एवं मनोबल को बढ़ाता है अपितु यह आपको जीवन की अन्य बड़ी चुनौतियों का सहज रूप से सामना करने हेतु तैयार भी करता है।

इसके अतिरिक्त अपने वचनों को निभाने का एक उच्च आध्यात्मिक कारण भी बनता है – हम अपने अन्तःकरण में विद्यमान उस दिव्य-सत्ता के और समीप आ जाते हैं। जब भी हम कोई वचन देते हैं तो यह आवश्यक नहीं की वह हमारे एवं दूसरों के मध्य एक संधि हो, अपितु वह हमारे एवं उस दिव्यता के मध्य का अनुबंध है (उस सत्ता को आप अपनी इच्छानुसार, ईश्वर, ब्रह्मांड अथवा तो कोई भी अन्य नाम दे सकते हैं)। चूंकि निर्णायक विश्लेषण के समय वह हमारे व दूसरों के मध्य नहीं, अपितु केवल और केवल हमारे व स्वयं हमारे ही मध्य होता है। कुछ समय पूर्व मैंने कैथ एम केंट (Kaith M Kent) द्वारा रचित एक कविता का उद्धरण दिया था (यहाँ देखें) । उस कविता में दृढ़तापूर्वक यह कहा गया है कि क्यों और कैसे हम जो कुछ भी करते या कहते हैं वह इस तथ्य के प्रभाव से बदलता नहीं रहना चाहिए कि अन्य लोग हमारे साथ कैसा व्यवहार रखते हैं। प्रत्येक स्थिति में, हमें सदा उसी प्रकार कार्य करना चाहिए जो हम पर जँचे।

मरते समय, मुल्ला नसरुदीन के वालिद अपनी सम्पूर्ण संपत्ति अपने साथ दूसरी दुनिया में ले जाने को अडिग थे। “मुझे वचन दो”, इमाम को 100,000 डॉलर की नकदी से भरा थैला पकड़ाते हुए वह बोले, “कि तुम यह धन मेरी मृत देह के साथ ताबूत में जरूर रखोगे,” ।

इसी तरह उसने एक थैला अपने डॉक्टर को व एक मुल्ला को भी उसी शर्त के साथ पकड़ाया। उन तीनों ने वचन दिया की वे वैसा अवश्य करेंगे। उसकी मृत्यु के 6 मास उपरांत वे एकत्र हुए और वह अनिवार्य विषय बातचीत में सामने आया।

इमाम स्वीकार भाव से बोला, “मुझे यह कहते हुए शर्मिंदगी सी हो रही है कि चूंकि मुझे मस्जिद की मरम्मत के लिए कुछ धन की आवश्यकता थी, इसलिए मैंने ताबूत में मात्र 60,000 डॉलर ही रखे”।

“आप मुझसे तो अच्छे हो,” डॉक्टर बोला, “मैंने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए 75,000 डॉलर निकाल लिए और मात्र 25,000 ही वहाँ रखे”।

“मुल्ला, आपने क्या किया?” दोनों ने उससे पूछा, चूंकि वह उनकी बातचीत के दौरान एक घृणित सा भाव मुख पर लिए बैठा था।

“आप क्या सोचते हो?” मुल्ला ऐसे बोला मानो उन्हें डांट रहा हो। “मैंने अपने वचन को निभाते हुए, पूरी धन राशि ताबूत में रख दी।”

“क्या? पूरे 100,000 डॉलर?” अति विस्मित हो दोनों एक साथ बोले।

“हाँ, बिलकुल”, मुल्ला ने कहा, “और, उन्हें नकद संभालने की परेशानी से बचाते हुए, मैंने उनके नाम एक चेक लिख दिया है। वे जब चाहें उसे कैश करा सकते हैं।”

कभी कभी, मुल्ला के वालिद की भांति हम ऐसे निरर्थक वचन चाहते हैं जो किसी भी प्रकार से किसी के लिए भी लाभप्रद नहीं होते, मात्र एक झूठे सुखकर-बोध के सिवा। और, किसी अन्य समय हम मुल्ला की भांति स्वयं की अनुकूलता के अनुरूप बचाव के रास्ते बना लेते हैं। किसी भी रूप में, यह हमें आध्यात्मिक रूप से निर्बल करता है। अपने वचन के प्रति कटिबद्ध रहने का सुगम मार्ग यह है कि पहले तो स्वयं द्वारा उच्चारित शब्दों के प्रति सचेत रहें, तत्पश्चात, एक एक दिन कर उन्हें निभाते चलें। “मुझे केवल इतना करना है कि मात्र आज के लिए मुझे अपने वचन पर अडिग रहना है, इस घंटे, इस मिनट। मुझे अपने शब्दों को घड़ी दर घड़ी निभाते चलना है, एक श्वास से दूसरी श्वास तक।” जब हम इतनी सचेतनता के साथ जीते हैं, ऐसे में हम अपनी प्रतिज्ञा को जीवनपर्यंत तोड़े बिना एक सुंदर ढंग से निभा सकते हैं। यही आध्यात्मिक बल एवं प्राप्ति का रहस्य है।

कैसा हो यदि हम भी अपने वचन के प्रति उसी प्रकार बद्ध रहें जैसे प्रकृति अपने वचन के प्रति रहती है? हमारे जीवन में स्वतः एक स्वाभाविक व्यवस्था का प्राकट्य हो जाएगा। हाँ किन्हीं असाधारण अवसरों पर प्रकृति भी डगमगा जाती है (जैसे एक असमय की बौछार का पड़ना अथवा शीत ऋतु में एक गर्मी की लहर)। किन्तु अधिकांशतः, प्रकृति मौसम का क्रम बनाए रखती है। यदि हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपने दिये वचनों को निभाने हेतु सच्चाई से प्रयत्न करे तो हमारा संसार क्रमशः और सुंदर व क्षमाशील होता चला जाएगा। चूक हो जाना मानवीय है, क्षमा कर पाना दिव्य। पुनः चूक करना अनुत्तरदायी व्यवहार है। और पुनः क्षमा कर देना……. संभवतः सह-निर्भरता अथवा तो सर्वोच्च करुणा।

विभिन्न प्रकार के विकर्षणों एवं प्रलोभनों के मध्य रहते सच्चाई पूर्वक बोलने व कार्य करने के प्रति हमारा हमारा एक कर्तव्यपूर्ण दायित्व बनता है।

वचनों का सम्मान रखना सम्मान भरे संसार का निर्माण है।

शांति

स्वामी