पहले आईएएस की तैयारी करी पर जब उसमें निरंतर प्रयास के बाद भी विफल रहा तब लगा कि इसके विकल्प में अब तो बॉलीवुड में एक कलाकार बनना ही उच्चतम लक्ष्य है। मुझे कॉलेज में नाटक करने का तजुर्बा था और मन में महत्वकांक्षा भी थी कि परदे के रंगारंग कार्यक्रम में मेरा भी चेहरा दिखे। तो मैंने ख्वाबों की उड़ान भरी और चला गया मुंबई।

वहाँ सालों धक्के खाये। कुछ धारावाहिकों में काम भी मिला पर उससे मेरी रोटी नहीं चल रही थी तो मैं साथ-साथ ज्योतिषी के पेशे में घुस गया। आज लगों को पन्ना, मूंगा पहनाके मेरी रोटी चलती है।

पर मेरा यौवन ग्लैमरस था। मेरी जीवन की यात्रा यूँ ही शुरू नहीं हुई थी। मैं हिन्दू कॉलेज में अपनी कक्षा के सबसे बुद्धिमान छात्रों में जाना जाता था।

मुझे लगता था कि मैं तो आईएएस के लिए ही बना हूँ …कॉलेज में अच्छे अंक ला रहा हूँ…  इतना बुद्धिमान जो हूँ। पर वहाँ बात नहीं बनी।

मैं लगातार तीन बार आईएएस की परीक्षा में विफल रहा। परीक्षा में होने वाले व्यक्तिगत साक्षात्कार का कभी अवसर ही नहीं मिला क्यूंकि मेरे अंक बहुत काम रहे। मैं हैरान था… हतोत्‍साहित हो गया था।  मुझे जीवन में कुछ कर के दिखाना था तो अपना जुनून याद आया-अभिनय। खोपड़ी उस तरफ घूम गयी और मैं अपने नाम के लिए मुंबई में जद्दोजहत करने लगा।

आज इतने वर्ष उपरांत मैंने बहुत कुछ खोया, पर कुछ तजुर्बा भी पाया है। बहुत सारे सपने देखे थे…पर हुआ क्या? जिंदगी। लक्ष्मी माँ ने पूर्णतः कभी छोड़ा नहीं और कभी ठहरी भी नहीं।

एक हफ्ते पूर्व मेरे मित्र राजन शर्मा का मुझे फ़ोन आता है कि हमारे महाविद्यालय का वार्षिक पूर्व छात्र-मिलन कार्यक्रम होने जा रहा है। उसकी अधिसूचना मुझे व्हाट्सप्प से मिल चुकी थी।

“तुम इस बार आ रहे हो ना?”

“नहीं। मैं नहीं आ पाउँगा। ”

मुझे कॉलेज से पास-आउट हुए १५ वर्ष हो चुके हैं।  मेरी शादी होकर तलाक भी हो चुका है।  इतने लम्बे अरसे में मैं कभी भी इस कार्यक्रम में सम्मिलित नहीं हुआ।

आखिर जाता भी तो कैसे। किसको क्या मुँह दिखाता? एक असफल व्यक्ति पहले खुद की नज़रों में गिरता है, फिर दूसरे भी उसे उसी शर्मिंदगी और अवज्ञा से देखने लगते हैं।

मैं उन सब सफल और खुश लोगों के बीच घुट जाता क्यूंकि न तो मैं सफल था और न ही खुश। उनकी चखा-चौंध में मेरी आँखें धूमिल पढ़ जाती और जो भी मेरा बचा-बुचा आत्‍मसम्‍मान है वो ख़त्म हो जाता।

यही डर और शर्म से मुझे कभी भी इस कार्यक्रम में जाने का साहस नहीं आया।

राजन का ५ दिन पूर्व फिर फ़ोन आया। “तुम आज-कल कहाँ हो ?”

“यहीं दिल्ली में अपने ऑफिस में हूँ। क्या बात है?”

“तो बढ़िया है। इस बार सम्मलेन दिल्ली में ही हो रहा है। तुम्हे आना ही होगा। सब तुम्हें याद करते हैं।”

“ठीक है मैं देखता हूँ,” यह कहके मैंने बात टालना चाही।

“नहीं तुम इस बार पक्का आ रहे हो। चलो मुझसे तो तुम संपर्क में रहते हो पर इतना समय हो गया है तुम्हे बाकि सब से मिले हुए। ”

कहीं-न-कहीं मुझे भी अब अपने कॉलेज के मित्रों से मिलने का मन करने लगा था। उन यारों से मिलने का जिनके साथ मैंने वो सुनहरे दिन बिताये थे। पर मेरी असफलता का दाग, और कमी और अयोग्यता की भावना बीच में अड़चन बनके खड़ी थी। फिर भी मैंने राजन को बोला ,”चलो मैं आ जाऊंगा।”

कार्यक्रम ७ तारीख को था। उस शाम मैं पहले से बन-ठन के तैयार था परन्तु मै कार्यक्रम-स्‍थल पर निर्धारित समय से काफी देर में पहुंचा चूँकि मुझे पता था कि सब अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में आएँगे और मै अकेला स्कूटी में हूँगा। मैं नहीं चाहता था कि कोई भी मुझे स्कूटी में देखले। मेरे पास खुदकी कार नहीं थी यह आभास में किसी को नहीं होने दे सकता था।

मैंने सबसे कोने में , गेट के पास ही, पेड़ के किनारे अपनी स्कूटी पार्क कर दी। फ़ोन खोला तो देखा राजन की तीन मिस कॉल आई हैं। मैं तुरंत अंदर गया। अंदर बहुत से लोग थे और भोजन सजा था। पलकें झपकाते ही कुछ जाने-पहचाने चेहरे दिखने लगे।

अभिनव दिखा जो कि कॉलेज में मेरा रूममेट था और मेरी समझ से आज वो एक यात्रा वेबसाइट में किसी ऊँचे पद पर है;  सचिन ,जो कि मेरा एक साल जूनियर है आज एक बड़े आईएएस के पद पे शुमार है और शिवा उर्फ़ “खजुरा” जिसकी सब खिंचाई करते थे पर आज वो एक सफल व्यापारी है।

दूर से राजन ने मुझे इशारा किया। मैं उसकी तरफ बढ़ने लगा पर तभी पीछे से एक हाथ मुझे कंधे पर छूता है। मैं मुड़ा और स्तब्ध रह गया। “अनामिका तुम।”

“हाँ जी। अनामिका। “

अनामिका मेरे जीवन की पहली प्रेम थी। हम कॉलेज में ही मिले और कॉलेज तक ही हमारा सम्बन्ध चला। फिर बादमे हमारे बीच गलतफहमियां बढ़ने लगीं और हम अलग हो गए पर उसके लिए मेरा स्नेह और प्रेम कभी कम नहीं हुआ। आज उसको, इतने सालों बाद देखकर मैं खुश था।

वह आगे बोली, “कैसे हो मिस्टर?”

“मैं बढ़िया हूँ अनु… अनामिका। तुम बताओ।”

“मैं भी बढ़िया हूँ। आज तुमसे इतने सालों बाद मुलाकात हो ही गयी प्रतीक।”

“हाँ हो ही गयी आखिरकार।”

उसने अपनी ऊँगली से एक तरफ इशारा किया। “वह हैं मेरे पति संजीव। वो एक सर्जन हैं। और वो हैं मेरे बच्चे आशु और नीशू।

फिर उसने एकाएक मुझसे पुछा,”तुम ठीक हो ना पक्का?”

“हाँ अनु…अनामिका। मैं ठीक हूँ। तुम संजीव के साथ खुश हो ना?

“मैं संजीव के साथ बहुत खुश हूँ। वह बहुत सज्जन व्यक्ति है।”

“मैं तुम्हारे लिए खुश हूँ अनामिका।”

वह आगे बोली, “तुम्हारे तलाक की खबर सुनी मैंने? काफी कठिन रहा होगा है ना ?”

“नहीं … यह तो जीवन है। इसमें क्या कठिन और क्या सुगम … सब जीवन का हिस्सा है।”

“चलो आज तुम्हे इतने वक्त बाद देखकर बहुत अच्छा लग रहा है।”

“मुझे भी अनामिका।”

“तुम्हारे पास नंबर हैं…अच्छा तुम मेरा नंबर लिखलो और अपना नंबर भी दे दो।”

मैंने फ़ोन निकला और उसका नंबर लिख लिया और अपना नंबर उसे दे दिया ।

उसने कहा ,”चलो फिर करते हैं फुर्सत में कभी बात।”

मैंने कहा,”ठीक है। जरूर करेंगे।”  

ठहाकों की आवाज़ की शाम कायल थी। मैं राजन के पास पहुँचा। वो और हमारे बैच के अन्य लड़के एक समूह में खड़े थे। “खजुरा” सबको अपना किस्सा सुना रहा था… फिर ये हुआ… फिर ऐसा हुआ। मैं भी समूह में सम्मिलित हो गया।

“अरे प्रतीक भाई आप अंततः आ ही गए,” अभिनव बोला।

मैंने बोला ,”जी। आप लोग की खिदमत में हाज़िर हूँ। और कैसे हैं आप लोग? सब कुशल-मंगल?”

सब बोले, “सब बढ़िया भाई-साहब।”

सचिन बोला ,”बस आपकी कमी कसकती थी। पर आज आपने भी दर्शन दे ही दिए।”

“बस यार आप सबकी कृपा है।”

हम सबकी बातचीत चल ही रही थी पर तभी मेरा एक पुराना मित्र, वैभव बिष्ट अपनी खुराफात में लगा हुआ था। कॉलेज में वो हमेशा लोगों की टांग खींचता रहता था। आज भी वह कुछ ऐसा ही कर रहा था।  एक समूह से दूसरे समूह में जाकर वो लोगों की मजाक बनाता और इससे पहले वो बदले में कुछ कह पाएं आगे दूसरी जगह चले जाता। ऐसा ही करते -करते वो हमारे पास पहुंचा।

मैंने उससे कहा ,”लगे हुए हो अपने कार्यक्रम में दोस्त ?”

वह मेरा इशारा समझ गया। फिर कहता है ,”हाँ सब फर्स्ट क्लास है। मेरा दिल यह देख कर खुश हो रहा है कि पुराने दोस्त आज भी मेरी बातों में फँस जाते हैं। तुम पर भी कोशिश की जाये ?… अरे नहीं। तुम तो कलाकार आदमी हो। कला की इज्जत करता हूँ।”

“अच्छा कला की इज्जत करते हो…कैसे करते हो बताओ तो। ”

“अब कैसे करता हूँ क्या बताऊँ? जैसे तुम्हारी करता हूँ।” वह अपनी हँसी होठों पर ही रोक रहा था पर अंततः “हाहाहा” की हुंकार सुनाई देती है।

“अच्छा अब मेरी भी टांग खींच रहे हो। तुम बदले नहीं दोस्त। उम्र तो बढ़ गयी है पर अक्ल नहीं बढ़ी तुम्हारी।” मैंने गंभीर स्वर में बोला।”

“अरे तुम तो बुरा मान गए।”

मैं हँस दिया और फिर बोला ,”अरे नहीं -नहीं। जैसे को तैसा कर रहा था। मज़ाक की बात है।”

“भगवान का शुक्र है। मैं तो डर ही गया था,” कहके वो हँस दिया। “चलो मैं आप लोगों से फिर मिलता हूँ,” कहके वो जाने लगा।

“नया मुर्गा ढूंढने जा रहे हो?”

उसने एक सनकी मुस्कान दी और चला गया।

मैं भी समूह छोड़कर एक ड्रिंक लेने गया तो अकस्मात ही कमी और अयोग्यता की भावना ने मुझे फिरसे घेर लिया। अनामिका का पति सर्जन है। करोड़ों कमाता है। अभिनव, शिवा भी आज करोड़पति हैं। राजन मेरा दोस्त दिल्ली हाई कोर्ट में वकील है, और सचिन आज एक बड़ा अफसर है। सबकी शादी हो चुकी थी।  सब सुखी लग रहे हैं। वहाँ सबसे असफल और अकेला क्या मैं ही था? या ये मेरी भ्रान्ति थी ?

नहीं … नहीं … मैंने एक पेग गटका और खुदको समझाया- इन हँसते खेलते चेहरों के पीछे  भी गम है पर कोई बयां नहीं कर रहा। सब दुनिया को अपनी अच्छी छवी प्रस्तुत करते हैं। ख़ैर मैं भूल भी कैसे सकता हूँ… मैंने बॉलीवुड की लाइन में बड़े -बड़े धनवानों को बड़ा दुखी देखा है।  यही आत्ममंथन करता रहा कि अंततः सब कहीं न कहीं दुखी हैं।

जैसे-जैसे मैं व्हिस्की पीते जा रहा था , मैं एक शराबी दलदल में धसते जा रहा था। मुझे बहुत ज्यादा अफ़सोस था इस बात का की क्यों मैं बॉलीवुड में आया? क्यों मैंने लोगों की बात नहीं मानी ? क्यों मैंने अपने को गौर से शीशे में नहीं देखा ? क्यों मैंने ये नहीं पहचाना की बॉलीवुड मैं होने के लिए जो तंतु और योग्यता की आवश्यकता है वो मुझमे नहीं है ? मैं अकेला क्यों हूँ ? मेरी पत्नी मुझे छोड़ कर क्यों चली गयी ? मेरा कौन है ? मैं किसका हूँ ? उफ़ !

मुझे “कहाँ जाऊँ -कहाँ जाऊँ” के भावावेश ने पकड़ लिया।किस्से बात करूँ ? किसे अपनी व्यथा बताऊँ ? कौन सुनेगा मुझे ? यहाँ कोई नहीं सुनेगा। न किसी को सुनाकर कुछ हासिल होगा। चुप-चाप रहना सबसे अच्छा विकल्प है।

अब और शराब मत पीओ…मैंने खुद को समझाया। मुझे अपनी प्रतिष्ठा और गरिमा को बचाए रखना था।

धीरे-धीरे सब खाना खाने के लिए आने लगे थे तो मैं भी कतार में लग गया। सबने खाना खाया और थोड़ी देर में समारोह का अंत हुआ। सबने एक दूसरे से विदा लिया और अपने घरों को लौटने लगे। मेरा मन तो पहले ही निकल जाने का था , पर फिर राजन ने रोक लिया।  मैं अंत तक वहीं रहा। अंत तक। मैंने वेटर से निवेदन करके एक और पेग पीया। फिर मैंने बाहर पार्किंग में जाकर राजन और अन्य मित्रों  को विदा किया। और जब सब चले गए, मैंने चुप-चाप कोने से अपनी स्कूटी निकाली और घर को चलता बना। 

END