देवी वामकेशी आज बुहारी की सेवा करने के लिए अपने समय से थोड़ा पहले ही आ गयी थी। शायद बीती रात वो ढंग से विश्राम भी नही कर पायी थी। उनके हृदय में शंका और द्वंद की लहरें बार बार उठ रही थीं। चित्त और आत्मा में घोर तर्क-वितर्क हो रहा था। एक तरफ़ चित्त स्वयं से ही ऊँची ऊँची अपने अस्तित्व की दुहाई दे रहा था ‘मैं भी तो एक शक्ति की अंश हुँ, मेरा भी अधिकार है।’ और दूसरी तरफ़ आत्मा धीमे से निर्बल स्वर में कह रही थी ‘जो कहने जा रही हो, क्या वो उचित है?’

चित्त कह रहा था ‘जो भी होगा, देखा जाएगा। अब नही तो कब?’ आत्मा कह रही थी ‘क्या ऐसी माँग करना, शिव के लिए सम्मान प्रकट करना होगा?’ चित्त आधारहीन भावनायों में बह कर निर्णय लेता है, जब कि आत्मा व्यवहारिक और सत्य के दृष्टिकोण से निर्णय लेती है। चित्त से निर्णय लेने पर एकदम से एक विजय की अनुभूति होती है, लेकिन उस विजय का आनंद केवल क्षणभर का होता है। आत्मा से निर्णय लेने पर शुरू में तो एक हार, एक दुखद अहसास होता है लेकिन कुछ समय बाद वही निर्णय हमारे आध्यात्मिक विकास का कारण बनता है।
पता नही आज परिणाम क्या होने वाला था? दिल और दिमाग़ थक गए थे, इतने आंतरिक द्वंद के बाद। देवी वामकेशी इसी उधेड़-बुन थी कि महादेव उसी स्थान पर आ गये जहां देवी वामकेशी अपने ही विचारों में खोयी हुई थी। 

“देवी, क्या सोच रहीं है?” गहरी सोच में बैठी गम्भीर देवी वामकेशी को महादेव ने आते ही प्रश्न किया

“आप से क्या छुपा हुआ है? महादेव। आप तो अंतर्यामी हो।”

“अंतर्यामी हुँ, परंतु आप ने हृदय की बात बताने के लिए ही तो एकांत में समय माँगा है।” महादेव ने हँस कर उत्तर दिया

“महादेव, मैं, मेरा अस्तित्व खोना नही चाहती, मैं माँ जगदंबा में विलीन नही होना चाहती। मुझे पता ही नही था कि बाहरी संसार इतना सुंदर है। इतनी प्रसन्नता से भरा है, इतने रंगों और गुणों से भरा है। बस मैंने निर्णय कर लिया कि…”देवी वामकेशी लगातार बोल रहीं थी और महादेव केवल गम्भीर होकर सुन रहे थे।


“इस ब्रह्मांड पर आपको अब तक जितनी प्रसन्नता मिली है, उस से कितने गुना ज़्यादा तो आपने इसी कष्ट में अपना अमूल्य समय व्यर्थ कर दिया कि आपको अपना अस्तित्व चाहिए। और इसी को माया कहते है। आपको अभी तक मेरे सानिध्य में केवल सुखद क्षण प्राप्त हुए है जिन्हें देख कर आप अपना अस्तित्व चाहती है। जब कि सत्यता यह भी है कि मेरे सानिध्य में व्याकुल करने वाले क्षण भी उतनी ही मात्रा में विद्यमान होते है। जो क्षण आज आपको सुखद लग रहे है, वो कल आपके लिए क्लेशदायक भी हो सकते है।”

“मैं सब प्रसन्नता से सहन कर लूँगी। ऐसा क्या है जो आप से परे है? आप मेरे लिए प्रकृति के चक्र को भी बदल सकते है? यह तो बहुत ही तुच्छ सी प्रार्थना है।”

“मैं किस औचित्य के लिए प्रकृति के चक्र में परिवर्तन करूँ? जिस कारण से आप प्रकृति चक्र को बदलना चाहती है, वह आपका स्वार्थ से भरा निजी उद्देश्य है। जिस में माया का प्रभाव है और इसमें किसी का हित नही है। और प्रकृति के नियम किसी एक व्यक्ति विशेष के लिए नही बदले जा सकते। इसलिए अपना अभीष्ट सिद्ध करने के बाद विलीन तो आपको होना होगा। निर्णय आपको यह लेना है कि आपको माँ जगदंबा के विस्तृत अस्तित्व में विलीन होना है या…?” महादेव ने इतनी बड़ी बात बहुत सहजता से कह दी

“लेकिन मेरे अवतरण का उद्देश्य क्या है, यह अभी तक मुझे ज्ञात नही। कुछ उद्देश्य है भी या नही अभी मुझे यह पता नही।” देवी वामकेशी ने उतनी ही व्याकुलता से पूछा

“आपके अवतरण का उद्देश्य शीघ्र ही पूर्ण होने वाला है। मेरी ही इच्छा से आपको इस संसार के विभिन्न रास रंग देखने को मिले और इसकी माया से आपका परिचय हुआ। चाहे देवी काली का अवतरण हुआ या श्री हरि के मोहिनी, नर्सिह, वामन और कच्छप अवतार हुए या मेरा वीरभद्र अवतार हुआ, सभी निमित्त अवतार अपना अभीष्ट सिद्ध करके क्षणों में विलीन हो गए।” “ अंधकासुर और जालंधर आदि राक्षस भी हुए थे। जो मेरी ही लीला से उत्पन्न हुए और सभी मेरे ही शत्रु बने और मेरे ही द्वारा युद्ध में मृत्यु को प्राप्त करके अंत में मुझ में ही विलीन हो गये। और देवी पार्वती की अंश होकर भी आप उन्हें ही शत्रु मान रहीं है। यही माया है। यह शोभनीय नही है।”

“लेकिन आप ऐसे कैसे…मैं अपना अस्तित्व कैसे खो… मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लीजिए।” क्रूदन करती हुई देवी वामकेशी के नेत्रों से लगातार झरझर अश्रु बह रहे थे और उनके मुख से आधे-अधूरे शब्द ही निकल रहे थे।

“वामकेशी, आप किस ब्रह्मांड और किस अस्तित्व की बात कर रहीं है? जिस अस्तित्व की आप बात कर रहीं है, वह केवल एक छलावा है। अटल सत्य यह है कि कोटि कोटि ब्रह्मांड देवी जगदंबा में ही स्थित है। वही एक सत्य संसार है। उन्हीं में विलीन हो जाना एक दिव्य अस्तित्व को पाना है। बाक़ी तो सब एक सुंदर भ्रम है। आप जो बाहर का सत्य समझ या देख रहीं है, वो तो मात्र एक प्रतिबिम्ब है। जिस प्रकार एक छोटी बालिका पानी में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब देख कर, उसी को वास्तविक चंद्रमा समझ कर उसको पाने का हठ करती है और आकाश में चमक रहे शशि की ओर देखती भी नही। उसी प्रकार आप, अपने अंतर्मन में विराजमान देवी जगदंबा और स्वयं के विशाल अस्तित्व को देख भी नही रहीं। बस माया के अधीन होकर हठ करके बैठी है।” महादेव ने देवी वामकेशी के शीश पर हाथ रखते हुए कहा, “स्वयं को पहचानिये। विलीन होना या ना होना, यह आपका विषय नही है। आप अजन्मा हो, आप देवी पार्वती हो।” आज पहली बार महादेव ने देवी वामकेशी को देवी नही कहा, बल्कि उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप के बारे में ज्ञान दिया।

महादेव का स्नेहभरा आशीष पाकर, देवी वामकेशी को एक सत्यता का आभास हुआ। मानो जैसे नेत्रों के सामने एक पर्दा था जो कि उठा दिया गया और मन में एक वैराग्य उत्पन्न हो गया। कुछ क्षण देवी वामकेशी नेत्र मूँद कर बैठी रही। ऐसा लग रहा था कि सारा भारी बोझ उतर गया।

“महादेव, आपको कोटि कोटि नमन। मुझे क्षमा कर दीजिए। माया के अधीन होकर जिस इच्छा को लेकर मैं हठ कर रही थी, उस से तो आपने मुझे कभी वंचित ही नही किया।” देवी वामकेशी ने महादेव के चरण पकड़ कर कहा, “अभी बस एक ही प्रार्थना है कि जो भी हो, आपकी आज्ञा और आपकी इच्छा से हो। जो आपकी आज्ञा है, वही मेरी इच्छा है।”

महादेव ने अपना बायाँ चरण स्नेह से देवी वामकेशी के सिर पर रखते हुए कहा, “आप मुझे अत्यधिक प्रिय हो, यही कारण है कि मैं इस बाहरी भ्रम से आपको दूर कर रहा हुँ। देवी जगदंबा का पूजन आपके नाम ‘वामकेशी’ से भी होगा। देवी जगदंबा के स्वरूप में आप सदैव मेरे साथ, मेरे पास ही निवास करेंगी।”

“हार्दिक आभार महादेव, तभी तो आप करुणामय देव कहलाते है। मेरे हठ को मिटा कर, बिना किसी साधना के वरदान से लिप्त कर दिया।”

“आपका स्थान अति दिव्य है। अपना अभीष्ट सम्पूर्ण करने के बाद, आपको अपनी लीला कैसे समाप्त करनी है। इस विषय पर हम बाद में चर्चा करेंगे।”

इतनी देर में द्वारपाल ने भीतर आने के लिए बाहर से ही आज्ञा माँगी, “स्वामी, नंदी और वासुकि आपके दर्शन अभिलाषी है।”

To be continued…

सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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