शालिनी अपनी शादी के तीन महीनों बाद घर आई थी| संयोगवस मैं उससे बाज़ार में मिली | शादी के बाद अक्सर लड़कियों के चहरों पर एक सिन्दूरी शाम ढलती हुई मिल जाती है | पर उसकी आँखो में एक अजीब खालीपन था| तभी मेरी नज़र उसके हथेली पर पड़ी जिसपर कटने के गहरे ज़ख्म थे |

अचंभित स्वर में मैनें पूछा, ”अरे! ये क्या हो गया, शालिनी?” उसने ज़रा घबराते हुए अपना हाथ पीछे कर लिया | मेरे ज़ोर देने पर किसी तरह उसने अपनी बात कही |

”पति से थोड़ा-बहुत मार खाना तो चलता है, दीदी”, शालिनी ने सर झुकाकर ज़रा संकोच से कहा |

मैनें परेशान स्वर में पूछा, ”और किसने कहा ये तुमसे?”

धीरे-से गर्दन उठाकर उसने मेरी आँखो में देखा और कुछ देर से कहा, “माँ नें…”

हम कहते हैं पुरुष-प्रधान समाज है | मानती हूँ| पर क्या औरतों के हर दर्दनाक हालात के पीछे केवल पुरुषों का ही हाथ है? तो फिर क्यूँ घरेलू हिंसा जैसे संगीन बातों को घूंघट की आड़ में छुपा देने के पीछे एक दूसरी औरत का सहयोग या दबाव होता है ?

एक औरत की ज़िंदगी बदतर करने में हमारे समाज की औरतों का योगदान भी सराहनीय माना जाना चाहिये! आखिर Woman-Man-Equality का सवाल है, नहीं?

माने, बस पूछ रहे हैं।  😏

                                  “अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी।” – मैथलीशरण गुप्त