महादेव ने महल में प्रवेश करते ही नंदी को एकांत में बुलाया और नंदी ने समझा कि महादेव को नए बघछाल, रुद्राक्ष मालाएँ इत्यादि फिर से अर्पित करनी है क्यों कि देवी वाम केशी ने अंत में फिर से प्रार्थना करके महादेव का अभिषेक कर दिया था।

“भोलेबाबा की जय हो!!! आज आपकी अति कृपा रही। महादेव की सेवा में क्या नए वस्त्र अर्पित करूँ?”

“नही नंदी, तुम से दो प्रश्न करूँगा। उनका उत्तर हाँ अथवा ना में देना और बिना किसी किंतु-परंतु के देना।” महादेव ने अति गम्भीर होकर कहा, “नंदी, क्या तुमने गिरिगंगा में देवी पार्वती के टूटे हुए केश, पूजा की थाली, गिरा हुआ कुम कुम और अन्य सामग्री, विशिष्ट प्रक्रिया के साथ विसर्जित कर दी थी? अगर नही, तो आज्ञा का पालन क्यों नही हुआ?”

मंगल अभिषेक के तुरंत बाद महादेव के  ऐसे वचन सुन कर नंदी थर-थर कांपने लगा। उसका गला सूख गया और चेहरे पर एक पीलापन आ गया। उसको लगा कि महादेव इतनी गम्भीरता से तो क़तई बात नही करते, कुछ तो जघन्य अपराध हुआ ही था। महादेव वैसे तो सदैव मुस्कुराते रहने वाले थे और हँसी-ठिठोली करते रहते थे। लेकिन यह भूला नही जा सकता कि किसी विषय में अति होने पर वह रौद्र स्वरूप भी दिखाते थे।

महादेव लगातार नंदी की तरफ़ गम्भीर दृष्टि से देख रहे थे, उसका उत्तर सुन ने के लिए। नंदी था कि आँखे निम्न करके बैठा था।

“नंदी, मैं कुछ पूछ रहा हुँ।”

 

“भूल हो गयी, महादेव। मैं स्वयं गिरिगंगा के तट पर नही गया था और ना ही वह विशिष्ट प्रक्रिया मैंने की थी। देवी माँ आपका मंगल अभिषेक कर रही थीं, कहीं कोई दिव्य दृश्य खो ना दूँ, तो उसी लालसा में मैंने शंख को कुछ गणों के साथ सारा समान विसर्जित करने के लिए भेज दिया था।”

“क्या अब मेरे विशिष्ट सेवकों ने अपनी सेवा में और सेवक नियुक्त कर लिए है? क्या सेवा का यही मूल्य रह गया है कि जो सेवा आपको प्रदान की जाए, उसको आप अपने विश्वास पात्रों में वितरित कर दे? तुम से भूल नही, यह अपराध हुआ है, नंदी।” महादेव थोड़ा और कठोर होकर बोले, “और मेरा ऐसा मानना है कि जब मन में अपने गुरु के लिए सेवा का कोई भाव ही ना हो तो उस व्यक्ति की सेवा को लेना क्यों? सोच रहा हूँ…”

“त्राहिमाम महादेव, मुझ से घोर अपराध हुआ है, कृपया मुझे क्षमा कर दीजिए। मुझे मृत्यु दंड दे दीजिए लेकिन अपनी सेवा से वंचित मत कीजिए।” ऐसा कह कर नंदी फूट-फूट कर रोने लगा

“नही नंदी, इसका परिणाम अत्यधिक भयानक होने वाला है। जो कार्य मुझे तुम से करवाना था, वो तुम ने शंख को दे दिया। अगर शंख को ही यह आज्ञा देनी होती तो मैं उसको स्वयं यह आज्ञा दे सकता था। सभी कार्य हर किसी के लिए नही होते, सबकी कार्य करने की निपुणता और क्षमता भी अलग अलग होती है। और तुमने भेजा भी तो शंख को, जो कि सुनता कुछ है, समझता कुछ है और करता कुछ और ही है। याद नही, किस प्रकार  शंख और कालिंदी के कारण मुझ में और देवी पार्वती में आधारहीन तनाव उत्पन्न हो गया था। सरलता और मूर्खता में एक बहुत ही महीन रेखा होती है।” महादेव ने काफ़ी गम्भीर स्वर में कहा, “और एक सेवक का यह धर्म नही कि वो स्वयं से यह निर्णय ले कि गुरु की आज्ञा का पालन उसको स्वयं करना है या किसी से करवाना है। आश्चर्य की बात यह है कि तुम ने मुझे यह बताने की आवश्यकता ही नही समझी कि शंख, तुम्हारी जगह जा रहा है, नही तो उस समय कुछ और औचित्य हो सकता था।”

“महादेव, क्षमा कर दीजिए, अगर आप मुझे प्रातः काल तक का समय दे तो क्या मैं शंख से उस क्षण के बारे में पूरी जानकारी ले सकता हुँ? शायद मैं अपने किए अपराध से बच पाऊँ।”

“जो नही होना चाहिए था, वो हो चुका है। लेकिन तुम्हारे मन की सांत्वना के लिए प्रातः काल तक का समय देता हुँ।” महादेव थे कि शांत ही नही हो रहे थे, “एकांत!” कह कर महादेव ने नंदी को भेज दिया।

प्रातः होने की प्रतीक्षा में, नंदी सारी रात्रि चिंता में बैठा रहा। सुबह की पोह फटते ही शंख को अपने पास बुलाने की बजाए, नंदी स्वयं शंख के घर चला गया। और जल विसर्जन का सारा वृतांत सुना। मंगल अभिषेक को जल्दी देखने की लालसा में दुर्भाग्यवश शंख उस विशिष्ट क्रिया को करना ही भूल गया था। नंदी उदास होकर गहरी सोच में पड़ गया कि अब महादेव की दिव्य सेवा से उसका निलंबन पक्का था। उसको रह रह कर वो दृश्य याद आ रहा था कि जब महादेव के अभिषेक के बाद उसने (वरदान सोच कर) महादेव से याचना की थी तो महादेव ने दो बार कहा था, “क्षमा, क्षमा माँगो, नंदी।”

अभी तो उसकी आँखों से झर झर अश्रु यह सोच कर गिर रहे थे कि कैसा अभागा क्षण था वो, जब गुरु आज्ञा की अवज्ञा हुई। जिन गुरु चरणों से जीवन का आरम्भ हुआ था और अंत होना था, उन चरणों से कभी विरह ना हो। ऐसा दंड तो किसी शत्रु को भी ना मिले।

कांतिहीन नंदी, महादेव के पास गया। अत्यधिक उदास और भयभीत नंदी, महादेव को प्रणाम करके, फिर से आँखें निम्न करके बैठ गया। उसकी आँखों से अश्रु झर झर करके धरती पर गिरने लग गए। उसके अश्रु देख कर महादेव, नंदी का उत्तर समझ गए थे।

“देवी वाम केशी, तुम्हारी माँ पार्वती का नया अवतरण है।” महादेव ने थोड़े शांत स्वर लेकिन गम्भीरता में कहा

“स्वामी? क्या वास्तव में? ऐसे कैसे?” आधे-अधूरे शब्दों में नंदी ने हड़बड़ा कर कितने ही प्रश्न कर दिए।

“तुम्हें याद है, जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष के घर स्वयं का अग्नि दाह किया था। उस समय भय से तुम ही मेरे पास यह समाचार लेकर आए थे। फिर मैंने क्या किया था?”

“उस समय आपने यह दुःखद समाचार सुन कर अपनी समाधि में से उठ कर क्रोध से अपनी एक जटा को तोड़ कर धरती पर पटका था तो आप ही का विनाशकारी स्वरूप वीरभद्र उत्पन्न हुआ था और दूसरी जटा को पटकने से देवी भद्रकाली उत्पन्न हुई थी। और विभित्स कोहराम के बाद में क्रोधित वीरभद्र ने खड्ग से दक्ष का सिर, धड़ से अलग कर दिया था। जिसे बाद में आपने बकरे का सिर लगा कर जीवित किया था।” नंदी उतने ही आवेग में बोला जैसे वो घटना कल ही हुई हो

“और एक बार जब देवी ने मेरे नेत्र व्यंग से बंद कर दिए थे तो क्या हुआ था?”

To be continued…

           सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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