“स्वामी, आप अभी मत जाये, माँ अभी सहजता में नही है। अभी आप गये तो करोड़ों वर्षों तक लौट कर नही आयेंगे और हम असहाय हो जायेंगे,” सभी मुख्य प्रजापतियों ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की। “माँ स्वस्थ हो जाए, आप कभी भी चले जाए। आपके सामने ही चिंतामणि गृह के प्रकृति क्रम की हालत है। कृपा कीजिए।” 
“मैं अकेले देवी को पूर्व स्वस्थ अवस्था में नही ला सकता। सभी को सहयोग देना होगा,” महादेव बोले।
“लेकिन स्वामी, हम आपको जाने नही देंगे, जब तक माँ पूर्ण: स्वस्थ नही हो जाती।”
“कठिनाई यह है कि एक निश्चित समय तक ही मैं यहाँ रुक सकता हूँ। उसके बाद मुझे जाना ही होगा। इस पर हम जल्द ही विचार करेंगे।” ऐसा कह कर महादेव ने सभी को वापिस भेज दिया

महादेव को कभी ना शब्द का प्रयोग करना आया ही नही। और सभी समझ रहे थे कि महादेव को कैसे भी हठ करके कैलाश पर ना जाने के लिए मना लेंगे। लेकिन नंदी और वासुकि कुछ ज़्यादा ही जानते थे शिव को। क्यों कि महादेव के साथ एक चीज़ नही हो सकती थी वो थी हठ। अगर हठ किया तो महादेव कुछ ऐसी लीला करेंगे कि सभी स्वयं ही मन से प्रार्थना करेंगे कि हे महादेव, आप तप के लिए कैलाश पर चले जाए। हम आपकी यह दशा नही देख सकते।

शिव प्रेम करते थे लेकिन उनकी आसक्ति किसी में नही थी, वो परम वैरागी थे। बिना तप के अगर वरदान देते थे तो वो केवल महादेव थे। किसी छोटी सी बात पर प्रसन्न हुए नही कि वरदान दे डाला।

महादेव क़रीबन 7 फुट ऊँचे क़द के, कपूर जैसा ग़ौर वर्ण, विशाल भूरे रंग के कमल लोचन, सुकोमल दृष्टि और धनुष आकार जैसे भौहें थीं। आकाश जैसा चौड़ा ललाट, तीक्ष्ण तीसरे नेत्र एक रूप में ललाट पर एक हल्की लाल रेखा, तीखी नाक, स्मित मुखी और वासुकि धारण किए नीले कंठ वाले थे। कमर तक आती लम्बी लम्बी जटा वाले और जटाएँ काली नही, अपितु भूरे रंग की थीं। उनमें अर्धचंद्रमा शोभा पाता था। हाथों में त्रिशूल और डमरू लिए, सुडौल तन वाले थे महादेव। बाघ छाल धारण किए, रुद्राक्ष पहने और भस्म धारण करते थे। भस्म लगाने के कई और कारण होते होंगे लेकिन शायद इसलिए भी लगाते थे ताकि उनका वास्तविक समोहित करने वाला स्वरूप सामने ना आ जाए। केवल माँ पार्वती के लिए ही उनका वो स्वरूप था। महादेव देखने में तो एक शक्तिशाली पुरुष की भाँति थे। लेकिन प्रकृति और वृत्ति से वो एक बालक की भाँति ही सकोमल और बहुत ही शर्मिले थे। माँ जगदंबा उनके जीवन का एकलौता उपहार थी, नही तो अभी तक महादेव ने कुछ भी अपने पास संचित नही किया था, जिस ने जो माँगा उसको वो दे दिया।

एक छोटे बालक जैसे छोटी सी बात पर खुल कर हँसने वाले, खुले मन और विचारों वाले और बिना भेद-भाव के सब को अपनाने वाले केवल महादेव ही हो सकते थे। योगियों के प्रमुख आदिनाथ योगी महादेव थे। संसार जिसे वहिष्कृत कर देता था, महादेव उसको अपना कर उसकी महिमा बढ़ा देते थे, उसकी पात्रता नही देखते थे।

महादेव ने सभी चिंतामणि गृह के निवासियों को शिवपुरी के एक निश्चित स्थान और समय पर बुलाया। यह सभा माँ से छिप कर की गयी थी। क्यों कि इस में माँ को पुनः वृत्ति में लाने के लिए एक नाटकीय रूप रेखा तैयार की जानी थी। उस समय हर रोज़ की तरह माँ की सेवा में उनकी प्रिय सखियाँ कामाक्षी देवी और कुलसुंदरी देवी थीं। लेकिन उन्हें इस सभा के बारे में बता दिया गया था ताकि अगर अचानक से माँ वन भ्रमण के लिए निकले तो वो वासुकि को पहले सूचित कर दें।

सभी चिंतामणि गृहवासी महादेव के दर्शन करने के लिए हाथ जोड़ कर प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही महादेव ने नंदी और वासुकि के साथ सभा में प्रवेश किया तो महादेव ने देखा कि सभी जन उत्साह रहित खड़े है। उनके चेहरों पर चिंता की रेखायें साफ़ दिखाई दे रही थीं।  

महादेव ने सभी को इशारे से बैठने का संकेत किया। सभा को सम्बोधित करना आरम्भ किया,“सर्वप्रथम मैं आपको सूचित कर दूँ कि देवी पार्वती बिलकुल स्वस्थ है और बीते कड़वे पलों से काफ़ी उभर आयी है। लेकिन उन्हें पूर्ण अवस्था में लाने के लिए हम सभी को सहयोग देना होगा और यह कार्य एक घड़ी का नही है। आज जो देवी सब से भिन्न होकर रहती है, उस का उत्तरदायित्व आप लोगों पर भी है।”

“हम लोगों पर? लेकिन कैसे?” बलि नाम के निवासी ने हैरानी के साथ कहा, “माँ हमारी आराध्य देवी है।”

“आपने देवी को आराध्य समझा, माँ नही। आप में से कितने लोग उनसे सम्पर्क में है? आप उन के काली स्वरूप से डर गए और उनके स्वस्थ होने की प्रतीक्षा करने लगे। विकट परिस्तिथियों को हमेशा सुलझाया जाता है, दुर्बल बन कर सिर्फ़ प्रार्थना करने से कभी कुछ नही होता। आपने अपनी माँ को स्वस्थ होने के लिए उसको उसी के हाल पर छोड़ दिया।”

यह सुन कर सभी के नेत्र भर आए और पश्चाताप से मुख नीचे हो गये।

“अपने आराध्य की प्रवृत्ति का आपको पता होना चाहिए। उनसे डरना स्वाभाविक है, लेकिन प्रेम के बिना, ना श्रद्धा उत्पन्न होगी, ना ही भक्ति कर पाएँगे और ना ही कोई साधना। अपने इष्ट के साथ कभी भी औपचारिकता का सम्बंध नही होना चाहिए।”

“हमें क्षमा कर दीजिए, महादेव। हम से बहुत भारी भूल हो गयी। देवी माँ हमारी ऊर्जा है, हमारा ऐश्वर्य है और हमारे मन की शांति भी और हम ने अपनी ही माँ का ध्यान नही रखा। कृपा करके अब आप ही हमारा मार्ग दर्शन कीजिए। हम किस प्रकार अपनी माँ को पूर्व अवस्था में लेकर आए?”

“प्रकृति का नियम है, कोई भी माँ कैसी भी अवस्था में हो। लेकिन वो कभी भी अपनी संतान की ओर से अनभिज्ञ नही हो सकती। इसी प्रकार तुम्हें भी अपनी माँ को व्यस्त रखना है०००अति व्यस्त।

कैसा भी विषय और समस्या हो, कैसा भी उत्सव हो आदि सब में देवी को शामिल करो ताकि उनके पास स्वयं के लिए सोचने तक का समय ना रहे। अगर कोई समस्या नही भी है तो उसको उत्पन्न करो और उसका समाधान लेने के लिए देवी के समक्ष जाओ।”

महादेव की बात सुन कर सभी के उदास चेहरों पर एक बड़ी हँसी आ गयी। भगवान रुद्र में श्री हरि का योजना वाला यह स्वरूप आज सभी ने आज पहली बार देखा था।

“सभी सहर्षता के साथ अपनी सेवा करते रहेंगे। ऐसा प्रदर्शन करेंगे कि मानो बीते समय में कुछ घटित ही नही हुआ। समय समय पर हमें कुछ परिवर्तन करना होगा, उसका संदेश आप तक नंदी या वासुकि द्वारा पहुँच जाएगा। बाक़ी सारा मेरा दायित्व है। किसी को अगर कोई शंका हो तो निसंकोच कहे।”

“जब आप ही का सारा दायित्व है, प्रभु, वहाँ शंका का क्या काम।“ शंख नाम का एक पिशाच बोला

सभी ने,” साधु साधु” कह कर अपना समर्थन प्रगट किया।

“मैं आप सब की भक्ति से बहुत ही प्रसन्न हूँ। सभी को इस सहयोग के लिए उचित समय पर सुफल अवश्य प्राप्त होगा।“ ऐसा कह कर महादेव ने सभा को विराम दिया।

सभी में एक नयी ऊर्जा आ गयी और हर हर महादेव के नारों से चिंतामणि गृह गूँज उठा। महादेव हँसते हुए सभी को अपनी तर्जनी अंगुली के इशारे से चुप करवाते रहे, लेकिन यह महादेव की प्रजा थी जो कि बहुत समय के बाद अपने स्वामी के पास बैठी थी और अपनी प्रसन्नता प्रगट कर रही थी।

बग़ीचे में विचरण करती देवी माँ ने भी अचम्बित हो यह नारे सुने और अभी कुछ कहने ही लगी थी____

“होगा कहीं कुछ, लेकिन हमारा मन तो व्यथिथ है ना।” कुलसुंदरी ने बड़ी चतुराई से बात को ख़त्म करने के लिए तपाक से बोला।

इधर सभी नगर वासियों ने शिव के लिए सभा के बाद प्रीतिभोज का भी आयोजन किया हुआ था।

महादेव खीर का भोग लगा रहे थे कि उन्होंने देखा कि नंदी की थाली मीठे पकवानों से भरी हुई थी और वासुकि की थाली बिल्कुल ही ख़ाली। चूँकि वासुकि एक विशेष प्रकार के माँस को ही ज़्यादा पसंद करता था और वो यहाँ परोसा नही गया था।

“वत्स, जहाँ जैसा प्रसाद मिले, ग्रहण कर लेना चाहिए। नही तो आतिथ्य का अपमान होता है” महादेव ने वासुकि को इतना धीरे से कहा कि वो केवल वासुकि को ही सुनायी दिया। तुरंत ही उसने खीर को खाना शुरू कर दिया।

और नंदी को देख कर तो महादेव को पल भर के लिए अपने नेत्र बंद करने पड़ गए। क्यों कि नंदी मिठाई से भरी हुई थाली को जल्दी जल्दी ख़त्म कर रहा था और उसने इशारे से परोसने वाले दो लोगों को भी रोका हुआ था ताकि बिना देरी किये वह लोग और मिठाई नंदी को परोस सके।

“नंदी, क्या हो गया है तुम्हें? इतना खा खा कर बैल बन रहे हो?”

“प्रभु, बैल ही तो हुँ।” नंदी का उत्तर सुन कर वासुकि और महादेव दोनो ही हँसने लगे।

अगले ही दिन से देवी माँ से मिलने के लिए नगर निवासियों का ताँता लग गया।

To be continued…

           सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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