महादेव को ऐसे स्थिर दृष्टि के साथ देख कर देवी वामकेशी थोड़ा सतर्क हो गयी। उन्हें लगा या तो उनके शृंगार में कहीं त्रुटि थी या महादेव उनको निहार रहे थे। जब कि यह दोनो कारण नही थे। महादेव केवल यह सोच रहे थे कि सभी को यह सत्य कब बताया जाए कि देवी वामकेशी, माँ जगदंबा का ही अंश थी। १५ नित्या देवी, देवी वामकेशी, गणेश, कार्तिक, माँ जगदंबा और महादेव सभी के आसन गोलाकार आकृति में लगे हुए थे। आज की मुख्य अतिथि होने के नाते देवी वामकेशी का आसन महादेव के निकट लगाया गया था।

रसोई घर में ही भीतर के एक कक्ष में, कुशल रसोईयों का एक दल भाँति भाँति के पकवान बना रहे थे। पक रहे व्यजनों की सुगंध से देवी वामकेशी बहुत ही प्रसन्न और प्रभावित हुई। और सोच रही थी कि चिंतामणि गृह में कितने विचित्र और खुशहाल प्रचलन है। महादेव और माँ जगदंबा को परोसने के बाद जैसे ही उनकी थाली में पहला व्यंजन परोसा गया तो देवी वामकेशी थोड़ा हिचकिचा रही थी क्यों कि उन्हें यह नही पता था कि इस व्यंजन को खाना कैसे था? आज तक उन्होंने किसी चीज़ को चखा नही था। यह मुख्य भोजन से पहले परोसे जाने वाले हल्के-फुल्के व्यंजन थे। यह बादाम और खोए से निर्मित एक एक छोटा सा लड्डू था। गणेश, देवी वामकेशी के दायीं ओर बैठा था और वही उन का मार्ग दर्शन कर रहा था। भोजन के सम्बंधित जानकारी गणेश से अधिक अच्छी कोई नही दे सकता था।

देवी वामकेशी ने जैसे ही इसको चखा, आनंद से उनके नेत्र बंद हो गये। यह लड्डू मुख में डालते ही घुल गया और ऐसा लगा मानो एक परमानंद की प्राप्ति हुई था। फीके दूध के स्वाद में और इस लड्डू के स्वाद में अत्यधिक अंतर था। उन्हें लगा कि जैसे प्रकृति केवल बाहरी नही, आंतरिक भी होती है। यह शरीर भी अपने आप में एक प्रकृति का ही स्वरूप है। उन्हें लगा उन्हें इस तरह के भोज्य पदार्थों का स्वाद पहले ही चख लेना चाहिए था।

देवी वामकेशी ने जब २-३ लड्डू खा लिए, तो गणेश ने उनके कान में हल्के से कहा अभी और भी बहुत स्वादिष्ट भोजन परोसा जाएगा। आप केवल लड्डू से संतुष्ट ना हो जाना। उन्होंने देखा कि गणेश ठीक कह रहे थे, महादेव को अगला व्यंजन परोसा जा रहा था। अभी मूँग की दाल की छोटी-२ पकोड़ियाँ, इमली की चटनी, और पीने के लिए सुगंधित आम के खट्टे-मीठे रस को परोसा जा रहा था। जैसे ही देवी ने अपने मुख में इसका पहला ग्रास डाला, उनकी जिह्वा जैसे वाह कर उठी। देवी वामकेशी को यह पता ही नही था कि बोलने के इलावा भी, ईश्वर ने जिह्वा के लिए भी इस प्रकार के अनगिनत रस उत्पन्न किए थे। वह ईश्वर की संरचना के बारे में निरंतर सोच रही थी और साथ में बैठे गणेश उन्हें, अगले परोसे जाने वाले व्यंजन की पूरी जानकारी दे रहे थे।

महादेव कभी भी थाली भर कर एक साथ भोग लगाना पसंद नही करते थे। हर एक व्यंजन को बहुत सतर्कता से उन्हें परोसा जा रहा था। प्रत्येक रसोईये में यही होड़ लगी हुई थी कि महादेव और देवी माँ, उसके बनाए व्यंजन का तो ज़रूर भोग लगाए। सभी आनंदपूर्वक भोग का आनंद उठा रहे थे। रसोई घर के बाहर एक खुले स्थान पर बहुत सुंदर लेकिन धीमा सितार का संगीत बजाया जा रहा था।

अब थाली में कमल बीज, बादाम, काजू और केसर से बनी रसदार सब्ज़ी और साथ में सुगंधित चावल परोसे गये। साथ ही में थोड़ी सी करेले की और कटहल की सब्ज़ी भी परोसी गयी। इन सब्ज़ियों को सूखी लाल सबूत मिर्ची का झोंक दिया गया था।  भिन्न भिन्न दालें और मीठी-नमकीन सब्ज़ियों के साथ साथ पक्का भोजन परोसा गया। इतना स्वादिष्ट खाना खा कर वह तृप्त हो गयी। आज देवी वामकेशी ने खट्टा-मीठा, नमकीन, तीखा, कड़वा आदि सब प्रकार के रस चखे थे

फिर उन्हें मिष्ठान में दूध से बनी रबड़ी का भोग लगाया गया। और सबसे अंत में उन्हें तांबूल(पान) का भोग लगाया गया। जो कि गुलकंद, सुपारी, और भिन्न भिन्न प्रकार की सुगंधित चीजों से बना था। इस को मुख में रखते ही उनके नेत्रों में ख़ुशी के आंसू आ गए कि ईश्वर ने इस संसार को कितना कुछ ही स्वादिष्ट प्रदान किया था।

भोजन भी ईश्वर का ही एक स्वरूप होता है। शायद हम तभी भोजन ग्रहण करने से पहले ईश्वर को मन में भोग लगते है। अच्छा भोजन आत्मा की तृप्ति के लिए कितना ही अनिवार्य है।

उन्होंने मन ही मन माँ जगदंबा और महादेव को धन्यवाद किया और गणेश का भी जिस की सहायता से देवी वामकेशी अपने भोजन का इतना आनंद ले पायी। देवी वामकेशी बहुत ही प्रसन्न दिखाई दे रही थी क्यों कि आज संसार की बहुत सारी ख़ूबसूरत चीजों से उनका परिचय हुआ था। आज ही उन्हें पता चला कि सौंदर्य और शृंगार से इस शरीर की महत्वता बढ़ जाती है, सम्मान मिलने से एक व्यक्ति विशेष होने की अनुभूति होती थी और स्वादिष्ट भोजन शरीर के साथ साथ आत्मा का भी एक भी एक आहार होता था।

इस के उपरांत महादेव, माँ पार्वती और देवी वामकेशी, उसी विशेष उद्यान में सैर करने के लिए चले गये जो कि देवी वामकेशी के महल के बिल्कुल सामने था। माँ और देवी वामकेशी परस्पर बातें कर रहे थे और दो स्त्रियों की बातें महादेव मौन होकर मुस्कुराते हुए सुन रहे थे।

“आपने इस संसार को बहुत सुंदर भिन्न भिन्न गुणों से निर्मित किया है, महादेव।” देवी वामकेशी ने महादेव की चुप्पी को खोलने के लिए उनकी सहारना की

“मृत्यु, इस संसार से भी अधिक सुंदर है। यह संसार भी बहुत अच्छा है अगर इसमें आसक्ति ना रखी जाए तो।” महादेव ने अपनी गहरी वाणी में मुस्कुराते हुए कहा

महादेव के शब्दों को सुन कर माँ जगदंबा ने महादेव की ओर थोड़ी हैरत से देखा क्यों कि महादेव कभी भी बिना कारण से किसी साधारण चीज़ को ज्ञान में नही बदलते थे। माँ को थोड़ी शंका ज़रूर हुई लेकिन वे देवी वाम केशी की उपस्तिथि में पूछ कर मर्यादा का उल्लंघन नही करना चाहती थीं। और देवी वामकेशी को पता ही नही चला कि महादेव क्या कह गये क्यों कि वो तो इस संसार के सुंदर स्वरूप डूबी हुई थीं।

इन दिनों देवी वामकेशी ने दासियों और सखियों की सेवा स्वीकार करनी शुरू कर दी थी। वह सभी के साथ भोजन उपस्तिथ रहती थीं। भोजन के समय गणेश की ही संगति उन्हें अच्छी लगती थी और गणेश की भोली भोली बातें भी। जिस उद्यान की ओर वह हर क्षण मौन होकर देखती रहती थीं, अब उन्हें उसी उद्यान में प्रसन्नता से टहलते देखा जा सकता था।

चिंतामणि गृह में देवी वामकेशी का स्वरूप धीरे धीरे बदल रहा था और अब वो हर क्षण का पूरा आनंद ले रहीं थीं। जीवन का भी तो यही चलन होता है।

इन दिनों एक अच्छी बात यह होती थी कि महादेव…

To be continued…

सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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