कल रात कुछ ऐसा देखा हैं कि कहने को बस एक स्वप्न देखा हैं।

कि डरावना सुनसान स्थान है और कठिनाइयों का पहाड़ हैं।

हर पल, हर छन बस डर है इतना कि मौत ही बेहतर हों।

बस एक ही फरयाद है कि मौत ही बेहतर हों, मुझे वो ही मिल जाए, बस ये पल अब सेहनिय नहीं है और।

मैं खुद को कुछ समय बाद अपने घर मैं पाता हूं।

सांसों पर जैसे फिर काबू पाता हूं।

कि पता चलता है अंदर कोई बैठे हैं।

कौन है? कौन है?

 क्या ये वहीं हैं? हां! वही हैं, वहीं है।

उन्हें क्या परेशान करना उचित होगा?

नहीं! परंतु चरण स्पर्श? नहीं! इन हाथों से वो भी? 

नहीं मुझे चरण तो स्पर्श करने ही चाहिए!

दर्शन अभिलाषी को दर्शन तो करने ही चाहिए।

में नतमस्तक हो गया, जो मन अबतक चंचल था अब अविचल हो गया।

फिर नज़रें उठी तो सांसे थम गई ।

हे गुरुवर ऐसा रूप?

ये तो कलापनाओ के दृश्य में नही था?

आपका अतुल्य कद काया वाला रूप।

संपूर्ण रंगो को फीका कर दे ऐसे रूप पर पूर्ण काले वस्त्र?

ये कैसा द्वंद?

अवर्णीय , अकथनीय

ये आपके वक्ष स्थल पर कैसा विचित्र आभूषण हैं?

ये क्या माया है प्रभु?

इतने में अपने अपना हाथ सिर पर रखा, जो मन अतुल्य को तोल रहा था वो पल में शान्त हुआ।

पूर्ण ने मुझे शून्य में विलीन कर दिया।