देवी वामकेशी ने दासियों और सखियों की सेवा स्वीकार करनी शुरू कर दी थी। अब वह सभी के साथ भोजन के लिए रसोई घर में उपस्तिथ रहती थीं। भोजन के समय गणेश की ही संगति उन्हें अच्छी लगती थी और गणेश की भोली भोली बातें भी। जिस उद्यान की ओर वह हर क्षण मौन होकर देखती रहती थीं, अब उन्हें उसी उद्यान में प्रसन्नता से टहलते देखा जा सकता था। और वह उसी नेत्रों के आकार वाले तालाब के किनारे बैठ कर लाल और काले रंग कमल के पुष्पों को निहारती रहती थीं।

चिंतामणि गृह में देवी वामकेशी का स्वरूप धीरे धीरे बदल रहा था और अब वो हर क्षण का पूरा आनंद ले रहीं थीं। जीवन का भी तो यही चलन होता है।

इन दिनों एक अच्छी बात यह होती थी कि अक्सर महादेव माँ जगदंबा सहित, १५ नित्या देवी, देवी वामकेशी, गणेश और कार्तिकेय के साथ रसोई घर में भोजन के उपरांत काफ़ी देर तक बैठे बैठे ज्ञान गोष्ठी किया करते थे। कितने ही अमूल्य रहस्यों को बता रहे होते थे। सेवादारों में जो जहाँ होता था वहीं बैठ जाता था ताकि किसी भी क़िस्म का शोर महादेव की प्रवाहित वाणी में विघ्न उत्पन्न ना करे। जैसे रसोयीयों का दल रसोई के भीतर कक्ष में ही बैठ जाता था। द्वारपाल, द्वार की चौखट पर ही, संगीत वादक द्वार के बाहर और नंदी-वासुकि, अन्य दास दासियाँ आदि भी एक तरफ़ आसन बिछा कर बैठ जाते थे। और कितनी बार यह दृश्य देखने लायक़ होता था कि महादेव और माँ भगवती बैठे रहते। अन्य सभी जन भोग लगाने के बाद स्वयं उठ कर, सारे सेवादारों को उसी रसोई में बिठा कर उतने ही प्यार से खाना परोसते थे, जितने प्यार से वे लोग महादेव को भोग लगाते थे। हर कोई सेवादार ऐसी सेवा लेने से संकोच महसूस करता था। लेकिन महादेव की उपस्तिथि में जो अमृत बंट रहा होता था, उसको मना करने का मन भी नही करता था। बल्कि महादेव और महादेवी की उपस्तिथि में ज़्यादा ही खाया जाता था।

कभी महादेव हास-परिहास का ऐसा चलन चलाते कि सभी भोजन करते हुए भी शांत नही रहते थे। सबसे ज़्यादा गणेश हँसते हुए लोट-पोट होता था। और कभी किसी गम्भीर विषय पर चर्चा होती तो सभी अपने अपने जीवन के विभिन्न घटनायों और अनुभवों को सुनाते। लेकिन देवी वामकेशी सभी को चुप-चाप मुस्कुरा कर और उत्सुकता से सुनती रहती क्यों कि उसके जीवन में कोई अच्छा या बुरा अनुभव ही नही था। जो भी था चिंतामणि गृह का ही दिव्य और अपनेपन वाला अनुभव था।

एक दिन देवी वामकेशी ने महादेव से सभी के समक्ष एक सवाल पूछा, “महादेव, आप तो मृत्यु के स्वामी और संहारकर्ता हो, फिर इतने करुणामय कैसे हो? क्यों कि मृत्यु के दायित्व और करुणा का ताल-मेल कुछ जमता नही।”

तो महादेव हँस कर उत्तर दिया,“ मैं प्रकृति हुँ! जैसे प्रकृति की सुंदरता अतुलनीय होती है, वैसे ही प्रकृति की विनाशकरी लीला भी अतुलनीय होती है।”

देवी वामकेशी सारा समय महादेव के बताये गए ज्ञान का अध्ययन करती रहती थी। और रहस्यों को वो इतना ध्यान से सुनती कि उन्हें लगता कि इन में से काफ़ी रहस्यों की जानकारी उनके पास पहले से ही थी। और उन रहस्यों के कारण भी उसे बिना शब्दों के ही पता चल जाते थे क्यों कि थीं तो वो माँ जगदंबा की ही अंश। वह उत्सुकता से अपनी सखियों और दासियों से महादेव और माँ जगदंबा की रुचियों के बारे में पूछती।

महाबला नाम की एक सखी, देवी वामकेशी के हृदय के सबसे निकट थी। क्यों कि  वह देवी वामकेशी की भावनायों को ना केवल समझती थी बल्कि विशिष्ट समाज में रहने के तौर-तरीक़े भी बता देती थी। महाबला ही देवी वामकेशी को महादेव और माँ पार्वती के बारे में सब बातें प्रसन्नता से बताती थी।

देवी वामकेशी को पता चला कि कभी कभी महादेव और माँ जगदंबा एकांत में चौसर खेलना पसंद करते थे। वे केवल पति-पत्नी ही नही बल्कि एक दूसरे के सबसे निकट मित्र भी थे और महादेव, माँ जगदंबा के गुरु और आराध्य इष्ट भी थे। महादेव, देवी पार्वती का सर्वाधिक सम्मान करते थे और शायद तभी त्रिलोक के सभी दंपतियों में उन्हें सर्वश्रेष्ठ मना जाता था।

महादेव और माँ जगदंबा को चौसर खेलते हुए देखने की, देवी वामकेशी के मन में भी इच्छा उत्पन्न हुई। उन्होंने महाबला को कहा कि अगर वह माँ जगदंबा से विनती करें, तो महाबला ने विनम्रता से मना करते हुए कहा, “यह बिल्कुल निजी संदर्भ है। अगर आप स्वयं यह बात माँ से कर पाए तो यह मर्यादित होगा।”

देवी वामकेशी ने जैसे ही अपनी इच्छा माँ पार्वती के सामने प्रगट की तो उन्हें थोड़ी हैरानी हुई लेकिन उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर ली। महादेव थोड़ा हिचकिचा रहे थे, लेकिन अपनी वारणने का उत्साह पूर्ण मुख देख कर मान गए। महादेव अवसर देख कर माँ जगदंबा से एकांत में कुछ बात भी करना चाहते थे और यह सबसे अच्छा अवसर था।

अगले ही दिन चौसर के खेल के लिए दो बड़ी नौका का प्रबंध किया गया। एक नौका में केवल महादेव, माँ जगदंबा और देवी वामकेशी थे। और दूसरी नौका सुरक्षा हेतु साथ में रखी गयी थी। खेल शुरू हुआ और देवी वाम केशी की उत्सुकता बढ़ रही थी। संयोगवश इस बार के खेल में महादेव, एक बार भी जीत नही पाए या यह कह लीजिए कि जानबूझ कर हार रहे थे। लेकिन देवी वामकेशी इस रुचिकर खेल को सीख कर अति प्रसन्न थी और अच्छी बात यह भी थी कि इर्द-गिर्द की प्रकृति का दृश्य भी इस खेल को मनोरंजक बना रहा था।

जैसे ही खेल समाप्त हुआ तो महादेव ने देवी वामकेशी सहित एक नौका को वापिस भेज दिया और स्वयं, माँ जगदंबा से बात करने के लिए एकांत में नौका विहार करने लग गए। लेकिन थोड़ी ही देर बाद महादेव और महादेवी तेज वर्षा होने के कारण वापिस आ गए।


महाबला सखी से देवी वामकेशी को यह भी पता चला कि महादेव वीणा वादन में अति प्रवीण है। देवी भगवती और महादेव में वीणा वादन की जुगलबंदी भी होती थी। देवी वामकेशी सोच रहीं थी कि उनमें ऐसी कलाओं का एक भी गुण नहीं है। मंगल अभिषेक के समय अर्धनारीश्वर के दुर्लभ नृत्य के दिव्य दर्शन के बाद तो देवी वामकेशी काफ़ी प्रभावित हो गयी थी।

यह वाले पल देवी वामकेशी के लिए सबसे मनोहर सौग़ात थे। उन्हें महादेव का सानिध्य सबसे प्रिय लगता था। उसके मन में और जानने की इच्छा ऐसे बढ़ रही थी कि जैसे चंद्रमा की कलाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती है। प्रसन्नता और समृद्धि में इच्छाओं की सीमा समाप्त हो जाती है।

एक दिन देवी वामकेशी, माँ भगवती के पास कुछ और इच्छा लेकर, प्रार्थना करने गयी तो उन्होंने भीतर से माँ और नंदी की परस्पर बात-चित सुनी।

“पुत्र नंदी, यह कार्य अनिवार्य है, नही तो अनर्थ हो जाएगा। शीघ्र तलाश करो। मैं इतनी असावधान कैसे हो सकती हूँ?”

“जी माँ अम्बा, मैं पूर्ण प्रयास करता हुँ। परंतु अगर महादेव…”

देवी वामकेशी को लगा कि किसी निजी विषय पर चर्चा हो रही है तो वो शिष्टाचार के नाते द्वार से ही वापिस आ गयी और अंदर जाकर चर्चा को भंग नही किया।

और फिर उस रात्रि…

To be continued…

सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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Happy Independence Day to all. May Mother Divine bless us with the courage to fill our country with prosperity and make it a corruption free place. Let’s be proud Indians. Jai Hind !!!