निकली थी सफर पे,
एक सीधा-सा रास्ता,
ना कोई रोक-टोक,
ना किसी से वास्ता।
दूर तक जाती हुई
एक अकेली सड़क,
घेहरा सन्नाटा,
ना कोई धड़क।
सड़क के दोनों ओर
खड़े थे पेड़ तितर-बितर
अचानक पत्तों ने मचाया शोर
डोलते हुए इधर-उधर।
हवा चली ज़ोरों से
और घनी धूप थी छायी।
कुछ देखा आँखों के कोने से,
और एक घबराहट सी आयी।
मैंने देखा मुद कर
तो एक साया नज़र आया,
आगे-आगे मैं चली पर
वह पीछे ही मंडराया।
मैं भागी तो वह भी भागा,
मैं रुकी तो वो भी रुक गया।
लाख कोशिशों के बाद भी
उसको ना रोका गया।
थोड़ी दूर साथ चले तो
इस छाया की आदत-सी पढ़ गयी।
अब लगा की छोड़कर इस अनजान परछाँई को
कोई पद्धति नहीं है जीने की।
और फिर शाम हुई
सूरज ढल गया।
परछाँई साथ छोड़ गई,
वापस अकेलापन छा गया।
हर दिन, हर पल की यही है बात
लोग आते है और लोग जाते हैं,
लेकिन हमारा ही है हमको साथ
और हम इसीमें ही सुख पाते हैं।
फासला केवल ये समझने का है,
क्या गलत है, क्या सही है,
अकेलापन शब्द बुरा नहीं है,
एकांत स्तित ही आनंदमयी है।
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