जानते हो यह जन्मों से पड़ी
संकीर्णताओं और संस्कारों की ज़ंजीरें
कैसे टूटती हैं?
ना! ध्यान-ज्ञान-भजन-पूजन
छलावा है बस!
सतह से यही मालूम पड़ेगा
कि जो हो रहा बस इन्ही से हो रहा।
तुम सतह में मत फस जाना!
जिन्होनें भी सत्य को पाया
वो गहरे डूबे हैं।
उन छलावों के भीतर-भीतर
उतरना होगा।
बिना उनसे तन घिसाये
उनमे घुलना होगा।
कहीं तुम
इनके बाहरी कलेवर पर ही
खुद को मत लुटा जाना।
जाना! इन बाहरी छलावों के
दीवारों से घिसते हुए
इनके भीतर उतर जाना।
भीतर मिलेगा वो
जिसने रतन सिंह की लाड़ली को
मीरा बना दिया।
जिसके छुअन से
चैतन्य हरि-बोल के साथ
मिट्टी में लोट गए।
जिसने ना जाने कितने
नंदियों और प्रह्लादों को
बर्बाद कर दिया।
कभी किसी मार्कण्डेय के
प्राण बचा लिए।
तो कभी किसी दधीचि को
मृत्यु के घाट उतार दिया।
सब उसी का किया धरा है
जो इन छलावों के भीतर रहता है।
कौन? प्रेम।
प्रेम ही सार है।
इष्ट से हो जाए तो दर्शन।
आत्मा से हो जाए तो मोक्ष।
प्रेम का एक और रूप है,
अत्यंत दुष्कर जिसकी व्याख्या है।
पर तंत्र का यही आधार,
शिव-शक्ति की काशी-कामाख्या है!
विष्णु में अपना विश्व तो
फिर भी देखा जा सकता है।
ईश्वर हैं! प्रेम में दिल नहीं तोड़ते।
आप जो कहिये,
वो बस मुस्कुरा देंगे।
मुश्किल नहीं
विश्व को विष्णु में देखना।
वह हैं ही स्वयं विश्व!
मुश्किल है,
विष्णु को
अपने विश्व में देख पाना।
एक प्रेम ऐसा भी हो,
जहाँ मनुष्य नहीं,
बस आत्मा हो।
जहाँ घृणा, अवसाद को परे कर
अहंकार अपने वस्त्र उतार
पूर्णतः नग्न हो जाता हो।
जहाँ अपने साथी में
कोई इस गहनता से
अपने इष्ट को महसूस कर सके,
कि उन व्यक्ति का देह ही यन्त्र हो जाए।
और जागृत हो उनके मन में स्वयं ईश्वर।
क्या संभव है किसी मनुष्य को
इष्ट-रूप में चाहना?
उनकी खामियाँ-गलतियाँ परे रख
ईश्वर भाव में जीना?
हर एक क्षण
प्रेम और आदर के पुष्प से,
अहम् के हवन से,
दोनों के अस्तित्व को यूँ महका देना,
कि मानवीय-सम्बन्ध से
किसी देवालय की खुशबू आने लगे!
बैठकर कॉफ़ी की चुस्कियाँ लेना
तक उनके साथ तीर्थ बन जाए।
आसान नहीं है,
उनके रूखेपन को परे रख,
किसी पुरुष में
अपने शिव को
इस तीरवता से
महसूस कर पाना
कि अपने भक्त की पुकार सुन
स्वयं महादेव
आपके प्रेमी में जागृत हो जायें।
आसान नहीं है,
उनके मन के उतार-चढ़ाव को परे रख,
किसी स्त्री को
आदिशक्ति रूप में
प्रेम कर सकना,
इस गहराई से,
कि अपने भक्त का समर्पण देख
स्वयं पराम्बा
आपकी प्रेमिका में झंकृत हो जायें।
क्या अपने “मैं-मैं” के बोझ को हटा
इतना हल्का कर सकोगे खुद को,
कि अदृश्य-से हो जाओ उनके साथ?
कि मौजूदगी का कुछ एहसास ही ना हो?
ना होने जैसा होना।
आकाश-आकाश शरीर!
साँसों की आवाज़ में मौन जागृत हो।
तुम्हारा चलना, उठना, बैठना
सब धूमिल-धूसर पड़ जायें।
शरीर का बोध मिटा सकोगे
उनके करीब होकर?
ताकि उनके होने में,
उनके अस्तित्व में,
कोई खलल ना पड़े।
क्या हो पाओगे इतने हलके?
जी पाओगे इतने आहिस्ता?
कहते हैं, आत्मज्ञान
हल्का और विशाल
कर देता है।
फैला देता है वजूद को।
और फैली हुई चीज़ में
ज़्यादा आवाज़ नहीं उठती।
ठीक प्रेम की तरह।
बोध। ज्ञान। ध्यान। जागृति।
जब हो जाए तो हर तरफ
या इष्ट दिखते हैं
या स्वयं की आत्मा।
जैसा जिसका मनोभाव।
जैसी जिसकी तासीर।
ठीक प्रेम की तरह।
मिटा सकोगे काल का बोध
जो वह व्यक्ति समक्ष हो?
पनप सकोगे एक साथ
अपने परम गंतव्य की ओर?
हर दिन जैसे किसी मंदिर की
सफाई की जाती है,
एक-दूसरे के चित्त को
झाड़-पोंछ सकोगे?
जैसे देवालय के विग्रह की
अभिषेक-अर्चना होती है,
एक-दूसरे की आत्मा की
पूजा कर पाओगे?
ईश्वर-भाव में, ईश्वर की ओर
साथ चल पाओगे?
क्या बंधने को तैयार हो पाओगे
जो वह बंधन ही परम-मुक्ति हो?
साधना ही है।
क्यूँकि दुसरे में ईश्वर
उसी को दिख सकते हैं,
जिसने स्वयं के भीतर
ईश्वर को भाँप लिया हो।
#Inspired by a poem, The Canonization, by a 17th century poet, John Donne.
Comments & Discussion
2 COMMENTS
Please login to read members' comments and participate in the discussion.