“तो महादेव और देवी जगदंबा ने सोच ही लिया कि वे चिंतामणि गृह से प्रस्थान करना चाहते है। जैसी उनकी इच्छा! आने वाली अमावस्या की रात्रि को मैं युद्ध के लिए चयन करता हुँ। आशा करता हूँ कि राजमहल की स्त्रियों को रात्रि में युद्ध करने से कोई भय नही होगा। चिंतामणि गृह के बलवान पुरुष तो पहले ही मुझ से पराजित हो चुके है। अब केवल स्त्रियों से ही जय की आशा है।” नंदी और वासुकि उसका कटाक्ष सुन कर भी मौन रहे क्यों कि वे वास्तविकता जानते थे।

बाघासुर ने क्रोध में आकर और अधिक आघात करने शुरू कर दिए थे। चिंतामणि गृह के सभी निवासी और अधिक सतर्क हो गए। नगर में बार बार घोषणा हो रही थी कि अपरिचित गतिविधियों की सूचना तुरंत मुख्य सेनापति नंदी तक पहुँचायी जाए। क्यों कि बाघासुर कपटी और मायावी भी था।

इन दिनों देवी वामकेशी मन लगा कर अपनी बुहारी की सेवा करती थीं। विशेष कर महादेव के बैठने के स्थान की बुहारी वह झाड़ू से नही, बल्कि अपने सुंदर और लम्बे केशों के साथ कर रहीं थीं। ताकि वो उनके इस क्षण भंगुर अस्तित्व को अधिक से अधिक सेवा का अवसर प्राप्त हो सके।

वो अभी बुहारी कर ही रही थी कि महादेव उस स्थान पर समय से पहले ही आ गए।

महादेव को देखते ही देवी वामकेशी ने प्रणाम अर्पित किया। महादेव मुस्कुरा कर बोले, “आप अपने वास्तविक स्रोत में विलीन होने जा रही है। और विलीन होकर भी हर क्षण मेरे साथ निवास करेंगी। जो आत्मा मुझ में निवास कर रही है, इस से अधिक उसके लिए क्या आशीर्वाद हो सकता है? इस स्तर पर मेरे आशीर्वाद और वरदान की सीमा समाप्त हो जाती है।”

“यह सब आपकी कृपा और प्रसन्नता का प्रसाद है, महादेव।”

“देवी वामकेशी, मुझे आपकी भक्ति पर गर्व है। बाघासुर वध के बाद, आपको भी कुछ समय के अंतराल में ही विलीन होना होगा। अगर आप चाहे तो हम उस महत्वपूर्ण क्षण पर चर्चा कर सकते है। मेरी इच्छा है कि मेरे कैलाश प्रस्थान से पहले आप विलीन हो जाए। इस से माँ जगदंबा की इस लीला को पूर्णविराम मिल जाएगा।”

“जी महादेव, आपकी इच्छा शिरोधार्य है। अगर आप आज्ञा दे तो उस क्षण का निर्णय क्या मै स्वयं ले सकती हुँ?”

“अति उत्तम, देवी वामकेशी। मुझे आपका हर निर्णय स्वीकार्य है।”

अमावस्या की रात्रि आने में कुछ ही दिन शेष थे। बाघासुर अशांत घूम रहा था क्यों कि चिंतामणि गृह में युद्ध की जैसी कोई बात ही नही लग रही थी। उसको लग रहा था कि उसके भय से सेना को बहुत प्रशिक्षित किया जा रहा होगा क्यों कि उसने नंदी और वासुकि को हराया था। परंतु इसके विपरीत सभी ओर शांति लग रही थी और हमेशा की तरह नगर निवासी व्यस्त थे।

राजमहल का वातावरण भी ख़ुशनुमा था। दिन का एक भी प्रीति भोज ऐसा नही था जो सभी एक साथ नही खा रहे थे। सभी प्रसन्नता पूर्वक एक दूसरे के साथ व्यंग करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे। देवी वामकेशी का यह समय सबसे अधिक सुखमय और शांत था। उन के सभी प्रश्न-उत्तर और प्रार्थनाए समाप्त हो चुकी थी। अब केवल एक सुखद प्रतीक्षा शेष रह गयी थी।

महादेव कभी कभी हँसी-ठिठोली में पूछ लेते थे, “फिर हमारी शक्ति सेना तैयार है, युद्ध के लिए। यह कैसा युद्ध है जिसमें युद्ध से पहले इतनी प्रसन्नता छाई हुई है? मैंने युद्ध से पहले ऐसा सुखद वातावरण कभी भी अनुभव नही किया।” क्यों कि युद्ध से होने वाले परिणाम सबके लिए साकारात्मक थे, शायद इसलिए भी वातावरण इतना प्रसन्नता पूर्ण था।

इसके बिल्कुल विपरीत बाघासुर व्याकुल होकर रात को चिंघाड़ता और दाँव लगने पर जो नुक़सान हो सकता था, कर रहा था। ताकि चिंतामणि गृह निवासी या राजमहल से कोई उत्तेजित होकर उस पर आघात करे।

अमावस्या से ठीक एक रात्रि पहले जब चिंतामणि गृह के राजमहल के सभी सदस्य गहरी निद्रा में थे तो देवी वामकेशी रात्रि के तीसरे पहर में मोक्ष वन की तरफ़ अकेले ही चली गयी। उसने मोक्ष वन और उसके चारों ओर के स्थान पर अपने रक्त से श्री यंत्र की रचना कर दी। और यंत्र इस प्रकार बनाया गया था कि मोक्ष वन मध्यस्त बिंदु में आए। इस प्रकार देवी वामकेशी ने मोक्ष वन और आस-पास के स्थल का कीलन कर दिया। और चुप-चाप अपने महल में वापिस आ गयी।

हर रोज़ की आदत के अनुसार मध्य रात्रि में बाघासुर, उपद्रव करने के लिए अपनी गुफा से बाहर आया तो उसने कुछ असहजता महसूस की। लेकिन जैसे ही उसने वन से बाहर जाने के लिए कदम उठाया, उसको एक बिजली जैसा झटका लगा और वह पीछे की ओर गिरा। महादेव की सिद्ध मालाएँ और कुंडल, बाघछाल पहन कर वो शक्तिशाली तो बहुत हो गया था लेकिन उसका तंत्र, मंत्र और यंत्र का ज्ञान तो आधा-अधूरा था। क्यों कि यह सब उसने कृपा से नही, अपितु कपट से प्राप्त किया था। श्मशान जाने पर उसको महादेव के  दुर्लभ अघोरी स्वरूप के दर्शन प्राप्त हुए और उसकी बुद्धि का विकास भी हुआ लेकिन वह विकास अपूर्ण था क्यों कि वह एक कृपा नही बल्कि मात्र एक संयोग था। और उसने अपनी अधूरी विद्या को पूर्ण करने के लिए कोई श्रम नही किया और ना ही कोई कृपा की याचना की। इसका परिणाम यह हुआ कि छल से अर्जित अधूरी विद्या के अहं ने उसे विनाश की ओर धकेल दिया।

पूर्ण और सार्थक ज्ञान प्राप्त करने के लिए कपट की नही अपितु श्रद्धा और अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है। और देवी वामकेशी के इस कीलन का तोड़ तो केवल देवी के पास ही था। स्वयं महादेव भी इस कीलन को देवी की आज्ञा से ही भेदन कर सकते थे।

उसको यह समझने में एक क्षण भी नही लगा कि वन का कीलन कर दिया गया था। उसने ज़ोर ज़ोर से मायावी ध्वनियाँ निकालनी शुरू की। उसने एक साथ कई शिशुओं के रोने की आवाज़ें निकालनी शुरू कर दी। ताकि ऐसा लगे कि बाघासुर ने कई शिशुओं का अपहरण कर लिया था। लेकिन चिंतामणि गृह निवासी काफ़ी दिनों से सतर्क चल रहे थे और जानते थे कि यह सब उसका कपट था। सभी अपने अपने घरों के भीतर ही रहे।

अपनी ओर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया ना देख देख कर क्रोध में बाघासुर ने वन को ही नष्ट करना शुरू कर दिया और अधिक से अधिक भयानक आवाज़ में अट्टहास करने लगा।

और नंदी ने चिंतामणि गृह के नगर भर में संदेश भिजवा दिया कि उस दिन कोई भी नगर निवासी घर से बाहर ना निकले।

To be continued…

सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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