एक आवाज़ है,
अंतर्मन में ख़ुद की तलाश मे।
किसी शांत ,एकांत पहर की आगोश में ,
ये और तीव्र हो जातीं है।
कभी तो सुनाती है ये मखमली तान मुझे,
और कभी करती है अति करुण क्रन्दन,
कभी अचानक ‘खामोश’ हो जाती हैं।
खामोशी भरे ये अल्फ़ाज़ बहुत तीक्ष्ण हैं।
ये खामोशी मुझे खींच ले जाती है,
आंतरिक चेतना की उन तहों तक ,
जहां मैं घिर जाता हुं,
कई जानी-पहचानी आवाजो के झुंड से।
इनकी टंकार हृदय भेदी है।
और फिर शुरू होता है ,इनकी शिकायतों का सिलसिला।
मैं पूर्णतः ‘निःशब्द’ हूँ और शायद ‘निःशक्त’ भी,
क्यों कि मेरी इन्द्रियाँ यहां शून्य हैं।
जैसे मैं हूँ तो ,पर मैं ,मैं नही
मेरा होना मात्र मेरी ‘चेतना’ की उपस्थिति है,
और मेरा न होना मेरे ‘अहंकार’ की अनुपस्थिति का।
एक सुनी हुई परन्तु अस्पष्ट आवाज़,
जो मेरे अस्तित्व पर सवालात करती है।
सारी दुनियादारी से दूर कहीं शांत,एकांत देश मे,
मेरे होने का प्रमाण मांगती है।
इसका नाद मेरी चेतना के साथ ,
बाहर समस्त प्रकृत में गुंजायमान है।
नदी ,झरने ,पर्वत,वन सब इसके ईमानदार अर्दली हैं।
ये सब मुझसे सवालात करते हैं,
कौन हो तुम? ……कौन हो तुम?….कौन हो तुम?
जय श्री हरि🌼🌼🌼🌼💐💐🙏
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