क्या ऐसा कभी होगा?

हे प्रभु!

तुमसे झूठ कहां कह पाऊंगा,
तुम तो सर्वज्ञ हो।
अभी तो मुझे संसार प्यारा लगता है,
हर झूठा संबंध अपना लगता है।
मेरा हर संबंध तुमसे हो जाए।
क्या ऐसा कभी होगा?

हे प्रभु!
तुम तो सब सुनते हो।
मैं जो कह ना पाऊं,
वो भी सुन लेते हो।
अभी तो मुझे संसार को वार्ता प्रिय लगती है।
केवल तुम्हारा ही नाम सुनना चाहूं।
क्या ऐसा कभी होगा?

हे हरि!
भला, बुरा, कुटिल, कामी हूं,
लेकिन मैं तेरा हूं।
संसार में रहते हुए मैं तुझमें ही रहूं।
क्या ऐसा कभी होगा?

हे मधुसूदन!
ये नेत्र जो तुम्हें नहीं देख पा रहे हैं,
विषयों को बस भोगे जा रहे हैं।
इन्हें तुम्हारा दिव्य स्वरूप दिखे।
क्या ऐसा कभी होगा?

हे दीनबंधु!
शरणागत वत्सल!
भक्तपरायण!
जगदीश!
मैं प्रयास कर रहा हूं,
चलते चलते गिर रहा हूं,
इस यात्रा में भटक रहा हूं।
प्राण निकलें जब, तुम समक्ष हो मेरे।
क्या ऐसा कभी होगा?