खण्डहर ,भाग 1

खण्डहर श्रृंखला की पिछली कड़ी में मैंने अपने बचपन के खंडहर से हुए प्रथम साक्षात्कार का जिक्र किया था। आज खंडहर और मेरा खंडहरों प्रति प्रेम को कुछ घटनाओं के साथ साझा कर रहा हूं। आशा है मेरी जिज्ञासा की इस यात्रा में आपको भी उतना ही आनन्द आएगा जितना मुझे आया।  इन ढही इमारतों की सिसकियां और दुलार आपको भी इनकी आपबीती सुनने को विवश कर देंगी।

आइये चलते हैं…..

किले के अहाते में मैं  कई घंटो तक बैठा रहा ,सारा वातावरण शांत था। शाम ढलने को आ चुकी थी। सूरज की गेरुआ किरणे मंद-मंद खंडहर में उतर रहीं थीं। किले का टूटा गुम्बद जो किसी काल मे किले का समृद्ध भाल(मस्तक) हुआ करता था। रवि की  गिरती सिंदूरी किरणे किले के उजाड़ माथे को सुहागन कर रहीं थीं। ऐसा दृश्य मानो सूर्यदेव को किले की लुटी अस्मिता पर तरस आ गया हो, और दिन भर उपेक्षा ,अकेलापन ,और विरहाग्नि में जलते रहने के बाद जाते-जाते वे किले को क्षण भर के लिए ही सही ,उसकी वृद्ध काया का श्रृंगार कर रहें हों।

मेरा मन इस उपेक्षा को देखकर रुआंसा हो गया। शाम हो चुकी थी ,झींगुर ,चिड्डों ,कीटों ने अपना-अपना साज संभाल लिया था। मैने वहां से चलना ठीक समझा ,जाते-जाते मैं किले से बाहर के सब छज्जों और दीवारों को देखता आ रहा था ,कुछ देर पहले जो मेरे आगमन से आह्लादित थीं। किन्तु सूरज के क्षितिज पार जाते ही इनमे ख़ुश्क ,दुराव और निर्जीवता उतर आई। निशाकाल में किलों में भूत आतें है, ऐसा मैंने गांव में बहुत सुन रखा था। मेरे रोंगटे खड़े हो गए, एक सिहरन बिजली कि तरह सर से पाँव तक दौड़ गयी। मैं डरा नहीं था पर उस अनजान समाज जिसे भूत,प्रेत, आत्मा, कहते हैं के आगमन को लेकर तैयार नही था। मैं खंडहर से बाहर अपने घर को चल पड़ा, मन मे एक प्रश्न लिए, हृदय में  इन इमारतों के प्रति अनजान प्रीति लिए। आंखों से करुणा किले को झांकती हुई रस्ते की ओर मुड़ गयी।

                     “खण्डहर और मैं”

बचपन के उस खण्डहर साक्षात्कार बाद मेरी जिज्ञासा किलों, महलों के प्रति बढ़ गयी। उम्र बढ़ती गयी, मैं कक्षा 6वीं में  दाखिल हो चुका था, गर्मी की छुट्टी बीतने के बाद नए-नए जोश के साथ स्कूल जाने की तैयारी थी। जब स्कूल खुलने को कुछ दिन शेष रह जाते तभी से नई क्लास की किताबों का इंतजाम किया जाने लगता। देहाती बच्चों में खूब कॉम्पटीशन होता कि मेरे पास फ़लाँ विषय की एकदम नई किताब है , तेरे पास है क्या?…☺️☺️ नही न…….

दरसल होता क्या था, हर घर मे किताबें परिवार के बड़े भाई या बहन को आती थीं, इसके बाद प्रति वर्ष गर्मी के विश्राम के बाद उन पर नया जिल्द और कवर लगा कर के अगले उम्मीदवार को पकड़ा दी जातीं थीं। मैं भी इस चक्र से बाहर न था। मैं अपनी कक्षा में होनहार और प्रतिभाशाली छात्र था। हमेशा पढ़ाई,संगीत,खेलकूद, और अन्य गतिविधियों में मेरा नाम शीर्ष में ही रहता था। तो फिर मेरी किताबें पुरानी कैसी हो सकतीं थी ☺️☺️।। किन्तु पिता जी से सीधे कहने की धृष्टता करना कि मैं पुरानी किताबों के साथ विद्यालय नही जाऊँगा ,थोड़ा अमर्यादित बात होती और इस सब से ऊपर गरम्-गरम तमाचे का डर भी था😄😄😄😁😁

मेरे घर के पास सरकारी स्कूल में एक शिक्षक थे जिनसे मेरी पहचान हैंडपंप में पानी भरने के दौरान हुई थी। मैं उनकी एक दो ज्यादा पानी की बाल्टियां भर दिया करता था, मैनें उनसे नई किताबों का जुगाड़ जमाया, अगले दिन किताबें मेरे हाथ मे थी। विजयघोष करते-करते मैं घर गया। इस धांधली को मैंने उन शिक्षक का प्रेम-दुलार का अमली जामा पहना कर घरवालों के सामने पेश कर दिया। मेरी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई।

ख़ैर, नई किताबों में मुझे एक डार्क ब्राउन ज़िल्द की हष्ट-पुष्ट किताब दिखी, जिसके कवर पेज पर सांची के मुख्य द्वार और योगी शिव की मोहर वाली हड़प्पा की तस्वीरें अंकित थी। बस फिर क्या था…..

मेरे मन के रथ में सहस्र अश्व जोत दिए गए, जिसकी लगाम मेरी जिज्ञासा के हाथों थी ,मैने किताब उठायी और हिरन की तरह कुलांचे भरता सीधे घर की छत में पहुँच गया।

जारी है……….

😊 धन्यवाद 

आगे के भाग में और भी मजेदार घटनाओं और रहस्य के प्रति मेरी  प्रीति को साझा करूँगा ।

घर मे रहें ,सुरक्षित रहें

यथा संभव ईश्वर को ध्याते रहें💐💐💐😊

जय श्री हरि🌻🌼🌺

नारायण महादेव📿🕉️✡️