खन्डहर । ज़्यादातर लोगो को ये शब्द पढ़ते ही मन में एक वीरान और उजाड़ सा भाव उत्पन्न होने लगता है। नीरसता और विछोह की गंध चारो ओर घिर जाती है। जैसे कोई जाना नहीं चाहता इनके पास और ये हैं की चीख-चीखकर बुलाते हैं समाज को अपनी आपबीती सुनाने के लिए।
मेरा खंडहरों के प्रति बचपन से लगाव रहा, और थोड़ा नहीं, बहुत। पहली मर्तबा मैं उम्र सात का था जब मैं अपने घर के समीप हमारे राजघराने के एक उजड़ी गढ़ी में गया था जहां मेरे पूर्वज भगवान की संध्या पूजा एवं भोग लगाने का पवित्र कार्य करते थे। वहां मेरा जाना हुआ। मैं खेल रहा था उस वक़्त खेतो में। भारत में देहातो में गर्मियों की फसल के बाद सारे खेत-खलिहान तीन महीने की लम्बी छुट्टी पर चले जाते हैं, समर-वेकेशन। संयोगवश हमारी भी छुट्टियां मार्च-अप्रैल तक हो ही जाती थी। तो खेतो में खेलना देहाती बच्चों का एक पसंदीदा काम होता था। मैं आज खेलते-खेलते उस टीले के नज़दीक गया जिसके आगे से किले का खन्डहर शुरू हो जाता है। किले की ढही दीवारें मुुझे बुला रही थीं। उनकी दीवारों पर उगे हुए अजीब तरह के पौधे जिनकी शाखाएं अब सूख चुकी थी जो की किसी वृद्धा के सर के बाल की तरह  इधर-उधर झूल रही थीं जैसे कब से वह मुझे अपलक ताक रही हों। मैं खिंचा चला गया उस जीर्ण आभा की ओर।
 अंदर गया तो एक विशाल द्वार, जिसपे की गयी नक्काशी का कोई जवाब नहीं, लाल पत्थरों और सुर्खी चूनें की उस वृद्ध इमारत ने मेरी ज़बरदस्त अगुवानी की। मैं किसी रियासती राजकुमार की आवभगत का एहसास कर रहा था। मुझे एक क्षण के लिए लगा मैं कितनी बार यहां आ चुका हूँ। मेरे पदचाप पूरे खन्डहर में गूँज रहे थे जैसे इस खन्डहर के पुराने महाराज आ गए हों। मेरा आदेश हो और सारे अर्दली दरवान इसे सर झुकाये अदबो-अदब के साथ  खड़े सुन रहे हों। किले की हर दीवार की रौनक मुझको और उकसा रही थी। मैं स्वतः ही सारे खन्डहर में बढ़ता गया। एक घंटे कब निकल गए पता ही नहीं चला। वहां घूमते-घूमते मुझे बहुत करुणा का आभास हो रहा था जैसे कोई वर्षों से दूर बच्चा अपनी माँ के कलेजे को शीतलता दे रहा हो और माँ प्रेमाश्रित उस अथाह करुणा को लुटा रही हो। मेरे और खंडहरों के बीच कुछ ऐसा ही तादात्म्य स्थापित हो चुका था।
किले के विशाल-विशाल दरवाज़ों को लाँघते हुए मैं मुख्य आँगन के प्रांगण में पंहुचा। वहां मेरा साथ देने के लिए मात्र वीरानियत थी और ना जाने कितनी ही अजीब तरह की, हवाओं की धुनें जो शायद डरावनी भी थी। पर मैं निडरता से आगे बढ़ता गया। सारे आँगन में खामोशी पसरी हुई थी। किन्तु एक शिकायती मौन मुझसे हर क्षण कुछ कह रहा था। आँगन के चबूतरों पर बैठी अनजान परछाइयाँ मुझे आशान्वित नज़रों से देख रही थी। शायद उन्हें मेरे आने की प्रसन्नता से ज़्यादा मेरे विछोह का भय था। इन चबूतरों पर मैं बैठा रहा कुछ क्षण-भर। इनकी इस दशा को निहारते हुए मेरे अंदर एक अजीब-सी पीड़ा उभरने लगी। खन्डहर का एक-एक कोना मुझे सुन रहा था। मेरी एक छोटी-सी आहट सारे किले को चौकन्ना कर जाती थी…

To be continued…..

Thanks for Reading

 editing :- snigdha ganguli ji

Jay shri hari🏵🏵🌹🌹🙏