बचपन मे स्कूल से आने के बाद मैं गायों को चराने जाया करता था। घर से कुछ दूर ही खेतों के पास मैं अपनी गइया को चराता था। खेत की मेड़ों में बारिश के बाद एक विशेष प्रकार  की घास उगती है। ये घास अति कोमल एवं इसके डंठल को तोड़ कर यदि इसे चबाया जाय तो एक मीठा से रस निकलता है गायें और अन्य पशु  बड़े ही चाव से इसका रसास्वादन करते हैं। इन खास किस्म की घासों का सीजन केवल कुछ माह का होता है विशेषतः सावन के पावन महीने में और भादों के प्रथम पक्ष तक इसके बाद इसकी जगह ‘दूब’ ले लेती है वही दूब जिसे सदा हरी-भरी रहने का अभयदान प्राप्त है और जिसकी सनातन धर्म मे पूजा अर्चना में महती भूमिका है। ख़ैर, मेरे खेतों के पास ही हमारी कुलदेवी माँ का मंदिर है। गायों को चरने को छोड़ने के बाद मैं यही चबूतरे में बैठा करता था। मंदिर के अंदर स्थापित माँ के पवित्र पाषाण विग्रह से ज्यादा मुझे धरती में फ़ैला हरित  विग्रह ज्यादा आकर्षक लगता था। यहीं बैठे-बैठे  मैं गायों को बड़े ध्यान से चरते  देखा करता और एक अलग तरह की शांति को महसूस  करता था। आम ,नीम ,पीपल के पेड़ और बेलें ,खेतों में भरा पानी, बरसाती मेढकों की टर्र-टर्र ये सब मिलकर एक विलक्षण संगीत की रचना करते थे जिसका वर्णन शब्दों में करना मुश्किल है। ये गूंगे के गुड़ की कहावत के समान है। अस्ताचल की बेला में पक्षियों का समूह मन्दिर के बरामदे में प्रेम क्रीड़ा करते और गोधुली बेला के पूर्व अपने नीड़ की ओर प्रस्थान करते। ये सब घटनाक्रम रोज का था मैं नित्य प्रतिदिन इस दिव्य कार्यक्रम का अकेला दर्शक होता कभी कभार गाँव के कुछ साथी आते पर वो ऐसी एकांत जगह से ऊब कर बहुधा चले ही जाते थे😊 मुझे ये सब देखने मे बड़ा मजा आता ये प्रसंग लिखते समय मेरे हृदय सागर में प्रेम और करुणा की अनगिनत तरंगे उत्पन्न हो रहीं है। वह अनुपम दृश्य कुछ और नही बल्कि प्रकृति माँ की विराट वात्सल्य गोद थी जिसमे उसके नन्हे बच्चे कल्लोल किया करते और ममता का आनंद उठाते। मेरी गाय अक्सर चरते-चरते दूर निकल जाती और मुझे धीमी किंतु गंभीर आवाज़ में चेतावनी देती की मैं यहां हूं.. ‘बाँ.. बाँ… बाँ.. । ये सारे पशु और पक्षी माँ की उपस्थिति की ओर ही संकेत करते थे पर मैं मूढ़मति कहाँ इस रहस्य को समझता ।पशुओं में भावो को अनुभव करने की क्षमता संभवतः हम मनुष्यों से ज्यादा होती है क्यों कि उनके विकसित दिमाग नही है हम मनुष्यों में सम्भवतः ☺विकसित दिमाग है इसलिए हम केवल तर्क-कुतर्क में में उलझे वात्सल्य के अथाह सागर के महज एक बूँद से भी वंचित रह जाते हैं। स्कूल बीत गया,कालेज बीत गया,और कुछ वर्ष फकीरी में भी निकल गए😊 कुछ साल पहले जब मैं वापस मन्दिर में गया तो पुरानी सारी स्मृतियां तरोताज़ा हो गयीं ।  लगातार अश्रुपात और प्रेमपाश के साथ मैं वहां बैठा रहा……स्वामी जी के चरणों मे समर्पित उनका अक्षम शिशु💐💐💐💐💐💐