जय श्री हरिः
संध्या का समय है
सूर्य अस्ताचलगामी हो चुके हैं
रात्रि भी प्रवेश करने को उत्सुक है
समस्त वातावरण,
मानो दिनभर की थकान से शांत हो गया है
इसी बीच एक सुन्दर भवन के बाहर
गायों के बीच शांत रूप से मोहन खड़े हैं
उनके पैरों में जंगल की धूल लगी है
केश के बीच झाड़ियों के पत्ते उलझे हुए लगे हैं
एक हाथ गऊ के ऊपर प्रेम से रखा है
तथा दुसरे हाथ में वंशी है
सर पे बंधा हुआ साफा भी अब खुल गया है
और गले में माला के सामान पहन लिया है
हाथ की कलाई में,
पुष्प की माला लिपटी हुई है
तथा गर्दन में,
जंगल के पत्तों से सजी कई मालाएं हैं
ऐसा लगता है सब सखाओं ने,
आज मोहन का श्रृंगार किया
उनके साथ अनेक खेल खेले
माँ यशोदा की आवाज़ सुनकर मोहन सतर्क हुए
एवं झट से पास ही एक खाट में बैठ गए
थके हुए श्याम को देखकर माँ चिंतित हुईं
पर उनको देखकर क्षणभर के लिए मुग्ध हो गयीं
धन्य है वो मिटटी के कण
जिसे मोहन के चरण मिले
धन्य है वो गऊ
जिन्हे मोहन का दुलार मिला
धन्य है वो मित्र
जिन्हे मोहन का साथ मिला
धन्य है माँ यशोदा
जिन्हे स्वयं मोहन मिले !
यह एक काल्पनिक रचना है तथा कविता लिखने का प्रयास मात्र है । आशा करता हूँ की मोहन की कृपा से आपको यह पंक्तियाँ पढ़कर कुछ आनंद मिला होगा ।
जय श्री हरिः
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