*For two months had gone to stay with my friend helping her deal with her depression. The following poem is in that context…with a touch of humour*
घर के साथ कहा सुनी
आज दो महीने के बाद
ताला खोल, घर में रखा ही था कदम,
कि घर ने मुझे रोक दिया।
रुंधे गले से बोला…
पहले करो मेरा आलिंगन
फिर रखें घर में कदम।
पहले तो मैं सकपकाई
घर भी बातें करता है?
फिर हंस कर बोली
हां हां सुनाओ सुन रही हूं।
दो महीने से कहां गायब थी
कोरोना के इस मुश्किल दौर में
मुझे किसके सहारे छोड़ गई ?
ओहो मेरी हंसी निकल गई।
हंसो मत और सुनो…
मैंने तुरंत हंसी पर ब्रेक लगाई
ध्यान से लगी उसकी बातें सुनने
घर नेअपने बैन सुनाए…
दरवाजे बंद खिड़की बंद,
हवा का आना जाना बंद,
नन्हे पौधे प्यासे मुरझा गए
और मैं मूक सब तकता रहा
मैं कुछ कहती इससे पहले घर फिर बोला…
अभी और भी है,
रौब दिखाकर बोला…
धूल मिट्टी मनों के हिसाब से जमा हो गई।
सुबह के भजन कीर्तन के लिए कान तरस गए।
तुम्हारे मंत्रोच्चारण से मैं मंत्रमुग्ध होता था
सुबह की गायत्री भी बंद हो गई।
ना कुकर की सीटी ना झाड़ पोंछ
मेरे शीशे जैसे आईने पर
पर गई धूल की गहरी परत।
तुम क्या जानो गर्मी के मारे हाल बेहाल था मेरा…
पहले कूलर चलता था
पूरा घर ठंडा हो जाता है
मैं भी चैन से सोता, थोड़ा सुस्ता लेता
तुम छोड़ के मुझे यूं ना जाया करो
घर की आंखों में आंसू थे।
मैंने समझाने की नियत से कहा
पहले भी तो मैं जाती थी
तब तो कुछ नहीं कहते थे।
पहले की बात और थी
घर तुनक कर बोला…
पहले चौबीस घंटे की आया थी
जो तुम्हारे पीछे मुझे साफ सुथरा
और चमका कर रखती थी।
पता है धूल से भरा घर
भूतों का डेरा हो जाता है
अच्छा बाबा बस बस।
अब तो मुझे माफ करो
मैंने प्यार से घर को गले लगाया
उसे ठंडा पानी पिलाया
उसे खूब मनाया
झाड़ पोंछ कर खूब चमकाया
तब कहीं जाकर वह मुस्काया।
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