ना ये कविता है। ना ही article. ना ही ब्लॉग। कुछ नहीं है ये। मन अकेले में अपने गुरु से बातें करता है अक्सर। क्यूंकि उसके बे-सर-पैर की बातों को उनके अलावा कोई समझ नहीं पाता। वो स्वयं भी नहीं।
ये post एक ऐसी ही conversation है मन और मन के मालिक के बीच- More of an epiphany than depressing talks.
दूषित थी मैं।
कल्पों के असंख्य कर्मों का
आवरण चढ़ा हुआ था।
अहंकार चरम पर था।
साधना कोई की नहीं।
और खुद को
साधक की उपाधि भी दे डाली।
उसपर से ‘मातृ-साधक’।
अपनी बर्बादी मैं खुद से ही
लिखते आ रही हूँ जन्मों-जन्मों से!
जिसे संसार का भ्रम हो,
उसे ब्रह्म का ज्ञान फिर भी बचा लेगा।
जिसे ज्ञान का ही भ्रम हो जाए
उसका तो ब्रह्म ही मालिक है फिर!
जनम पर जनम,
खुद पर खुद ही का
आवरण चढ़ाती गयी –
अनिमेष। अहर्निष।
खुद ही से अखंड आसक्त,
हर जन्म में
मुक्ति से विरक्त रह गयी।
5000 साल।
5000 आवरण।
और हर एक आवरण से
रिसता अहंकार।
तिल-तिल कर
अहंकार की स्व-अग्नि में,
आत्मा जल गयी। फिर से जन्म लेने के लिए।
यही था सती का आत्मदाह।
देवी शिव से अलग हो गयी।
प्रकृति ने पुरुष को खो दिया।
चेतना से उसका चैतन्य विरक्त हो गया।
यही होता आया है
हर एक आत्मा के साथ
जो अपने ईश्वर से
और
ईश्वरत्व से
बिछड़ जाती है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर।
इनसे खतरा नहीं है।
हम आज तक इन्हें भेदते आये हैं।
इसलिए आज भी नाकाम हैं
इनपर विजय पाने में।
जड़ों में प्राण का निवास है।
इनकी जड़ो में जो स्थित है
बहरूपिया।
उसपर निशाना लगाइये।
अहंकार।
वही इनसब के रूप में
प्रकट होता है।
और मुक्ति का द्वार
चिरकाल के लिए
बंद हो जाता है।
हर किसी से
मुक्ति संभव होती है।
पर खुद से खुद की मुक्ति
नामुमकिन-सी है।
शायद इस कारण ही
मणिकर्णिका में चितायें
अहर्निष आठों प्रहर
धूं-धूं कर जलती ही रहती हैं –
किसी चक्र की भाँती।
5000 साल से चला
जन्म-मृत्यु का चक्र।
फिर एक दिन
रहम हो आई प्रकृति को।
आखिर वो तो माँ है न!
कबतक ही तड़पायेगी किसी को।
अहंकार की बेड़ियाँ की चाभी
शुद्ध ज्ञान है।
और चाभियों का वो गुच्छा
बड़ी अदा से गुरु
अपने गेरुए वस्त्र के
आँचल के छोर से बांधते हैं।
बहुत गहरी बात है यहां।
क्या तुम्हारी नज़र पड़ी?
तुम्हारी मुक्ति की जो चाभी है,
वो ज्ञान है।
और गुरु
उस ब्रह्मज्ञान की चाभी को
अपने आँचल के छोर से बाँधते हैं।
एकदम कोने में।
जो आँचल के भीतर आया,
वही छोर को पा सकता है।
जो आश्रय में आया,
जो शरणागति हो पाया ,
उसकी ही मुक्ति संभव है।
कुछ दिन पहले माँ ने
मेरी कुंडली दिखवाई थी।
महोदय उच्च कोटि के विद्वान्।
“किसी घोर पापी की आत्मा को
शरीर धारण किये बैठा है।
कर्म इतने ही बुरे हैं कि
बचना असंभव है नर्क से।”
अहा! सुकून आ गया।
कर्म बुरे हैं मतलब
प्रारब्ध के ज़रिये तो
मुक्ति असंभव है।
कर्म से नहीं होगा।
अब बस कृपा से ही
होगा जो होना है।
Truth अपने आप में
एक वरदान है।
Options का ख़तम हो जाना
मुबारक बात है!
रास्ता साफ़ है!
“किसी घोर पापी की आत्मा को
शरीर धारण किये बैठा है।”
Hitler-Taimur का पुनर्जन्म हूँ शायद!
पर बात ज़रा समझ से परे है।
शरीर धारण किये बैठा है?
चाभी वाले गुरुदेव तो कहते हैं,
“आत्मा शरीर धारण करती है।
और वो नित्य-शुद्ध है।”
न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
वो ज्योतिषी पारंगत थे अपनी विद्या में।
गुरुदेव पारंगत हैं ब्रह्मविद्या में।
ये दो इंसान नहीं। धारणाएं हैं।
एक संसार है। दूसरा आध्यात्म।
संसार के लिए जो दुष्कर है,
आध्यात्म के लिए वो दाल-भात।
To be Continued…..
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