कभी पुछा तुमने की मैं क्या चाहती हूँ ?
ज़िन्दगी की नयी शुऊआत में तुमने मुझे ज़िम्मेदारियों में ढाल दिया
कभी उकता कर करनी चाही शिकायत मैंने तो उससे मेरा धर्म कहकर टाल दिया
जब मिलता था तुम्हारी जेब से किसी और का रुमाल तो उसे मेरा भरम कहकर टाल दिया
सपनो के महल की दीवारों को खड़ा करने में तुमने हमारे रिश्ते की नीव को ही बे ढाल कर दिया
मन की प्यास तो तुम बुझा न पाए मेरी और जब तन की भूख के लिए मैंने तुम्हे छुआ तो तुमने मुझे वैश्या करार दे दिया
कहते हो की सब तो तेरा ही है मगर एक एक पैसे के लिए तुमने मुझे मोहताज कर दिया
आज जा रही हूँ तुम्हे छोड़ कर , अपने आप को तुम्हारी क़ैद से मैंने आज़ाद कर लिया
नया जीवनसाथी चुन लिया है मैंने
जिसने मुझे मेरे होने का एहसास कराया है
मेरा हाथ थाम साथ देने का जीवन भर का वादा निभाया है
मेरे हर पुराने ज़ख्म में उसने मरहम लगाया है
तुमने तो कभी पुछा नहीं की मैं क्या चाहती हूँ
तो सुनो ध्यान से मैं तुम्हे नहीं , किसी और को चाहती हूँ.
(PS: this poem has nothing to do with my personal life. However i am absolutely fine with people moving out of a relationship if they get someone better and are happy. Extramarital affairs, divorce, one night stand, open relationships are very common these days but just for the sake of societal moral standards people are stuck in one relationship and are termed as bad people if they look for their happiness and freedom outside a marriage. My views may not go well with many people, so i apologize in advance. Do not take anything personally, life is temporary so as human relationships. )
Thanks for you time
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