नंदी की प्रणाम करने का दृश्य देख कर महादेव और अन्य सभी उपस्तिथ लोग बहुत ही हँसे। और वासुकि ने शंख की धूप और धुएँ की सारी कहानी महादेव को कह सुनाई।

यह सारा दृश्य देख कर देवी वामकेशी भी बहुत हँसी। और कुछ क्षण के लिए वो अपनी चिंता का कारण भी भूल गयी। हँसी, ईश्वर का दिया हुआ बहुत सुंदर उपहार है। लेकिन अपनी बात को लगातार सोचते हुये, उसी दुःख ने उन्हें फिर से घेर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, बिना समय व्यर्थ किए अब तो महादेव से अपने अस्तित्व के बारे में बात करनी ही होगी।

उसी दिन नंदी और वासुकि, माँ जगदंबा से भेंट करने आए और कुछ चिंतित लग रहे थे। उनसे बातचीत के बाद, माँ भी काफ़ी चिंतित हो गयी।

रात में रात्रि भोज के लिए सभी एकत्रित हुए। देवी वामकेशी भी आयी लेकिन थोड़े से विलम्ब के साथ आयी। तब तक महादेव अपना भोजन समाप्त कर चुके थे। गणेश का आज मस्ती करने का मन था लेकिन देवी वामकेशी अपने द्वंद के कारण उसको सहयोग ही नही दे पा रही थी। देवी वामकेशी अनमने मन से भोजन कर रही थी।

“देवी वामकेशी, मैं आपकी बुहारी की सेवा से अत्यधिक प्रसन्न हुँ। आप बहुत एकाग्रता से सेवा करती है।”

“अति आभार महादेव, यह आप ही की कृपा है। महादेव, एक प्रार्थना थी। क्या मुझे आपके कुछ क्षण एकांत में मिल सकते है?” देवी वाम केशी को लगा जैसे महादेव ने उसके मन की व्यथा को समझ कर ही बात शुरू की थी।

देवी वामकेशी की इस प्रार्थना से वहाँ बैठे सभी लोगों को थोड़ी हैरानी हुई, क्यों कि आज तक ऐसा साहस कभी किया नही गया था। लेकिन महादेव को कोई हैरानी नही हुई।

“महादेव, कृपा कीजिए। मेरी भी आप से यही प्रार्थना है। मुझे आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता हैं । क्या आज रात्रि मैं आपके साथ श्मशाम वास कर सकती हूँ?” माँ ने महादेव से 

क्यों कि महादेव की कैलाश यात्रा में देरी हो गयी थी तो महादेव पिछले कुछ समय से श्मशान में निवास कर रहे थे।

माँ जगदंबा की भी ऐसी प्रार्थना सुन कर सभी और भी आशंकित हो गये और भोजन करते हुए रुक गये। एक चिंताजनक सन्नाटा छा गया कि कहीं कुछ तो ज़रूर कुछ ऐसा था जो देवी वामकेशी और माँ जगदंबा ने एक ही समय में महादेव से एकांत के कुछ क्षण माँगे थे। देवी वामकेशी ने सोचा कि शायद माँ जगदंबा को उनके अवतरण के बारे में पता चल गया था और उसी के संदर्भ में कुछ बात करनी होगी। देवी वामकेशी की प्रार्थना को सुन कर माँ को लगा कि शायद देवी वामकेशी पुनः किसी बात को लेकर चिंतित होगी और किसी माँग पूर्ति के लिए महादेव से प्रार्थना करनी होगी।

दोनो की प्रार्थना सुन कर महादेव भी बहुत बड़ी मुस्कान लिए मुस्कुरा दिए क्यों कि महादेव, वास्तव में ही माँ जगदंबा और देवी वामकेशी से एकांत में मिलने का अवसर चाहते थे और यही एक सही अवसर था, वास्तविकता को स्वीकार करने का।

“अवश्य, यह अनिवार्य है। देवी वामकेशी, मैं आपको कल आपकी बुहारी की सेवा के उपरांत दर्शन दूँगा। और देवी पार्वती से आज मैं, रात्रि भोजन के उपरांत उनके महल में भेंट कर लेता हुँ और श्मशान मैं रात्रि की तीसरी घड़ी में जायूँगा।” महादेव अभी यह कह ही रहे थे कि ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें आने लगी जैसे कोई पर्वतों को उठा उठा कर फेंक रहा हो और कुछ समय बाद यह आवाज़ें शांत हो गयी।

सभी एक दम से सतर्क हो गए। इस से पहले कुछ सोचते, नंदी भागता हुआ रसोई घर में आया। आते ही उसने महादेव और देवी जगदंबा को प्रणाम की।

“महादेव!” नंदी बोल नही पा रहा था और बुरी तरह से हाँफ रहा था 

“क्या हुआ, नंदी। तनिक शांत हो जाओ।”

“महादेव, किसी ने चिंतामणि गृह के मन्दार पर्वत को बहुत बुरी तरह से नष्ट कर दिया है और हमारी सीमा पर जो प्रवेश कीलन किया गया था उस पर भी घातक आक्रमण हुआ है।”

“कहीं किसी दानव ने दंड लोक की तरफ़ से आक्रमण ना कर दिया हो।” महादेव ने कहा

बात ठीक लग रही थी और सभी यह सोच में ही पड़े थे कि गणेश ने अपनी बुद्धि से उत्तर देते हुए कहा, “नही बाबा, यह आक्रमणकारी दंड लोक से नही हो सकता। क्यों कि समस्त दानव जानते है कि जब वहाँ लोकपालों ने अपना दायित्व पालन छोड़ दिया था तो केवल माँ ने अपनी १५ नित्या देवियों के साथ मिल कर वहाँ नवीन प्रकृति की स्थापना करके उन्हें नया जीवन प्रदान किया था।” “और दानव, माँ के काली स्वरूप को भी अभी तक नही भूले होंगे।” गणेश बड़ा हो रहा था और वह अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के लिए प्रसिद्ध था।

“गणेश ठीक कह रहा है, नंदी। तुम मन्दार पर्वत पर स्वयं जाकर देखो। कहीं ना कहीं तो उसका सुराख़ मिलना चाहिए।”

“जो आज्ञा, माते। मैं तुरंत ही कुछ गण लेकर घटना स्थल पर पहुँचता हुँ।” ऐसा कह कर नंदी और वासुकि तेज़ी से प्रस्थान कर गए।

सभी मौन होकर बैठे थे और एक गहरी सोच में थे। आज का रात्रि भोज केवल रहस्यों से भरा हुआ था। पहले देवी वामकेशी और माँ जगदम्बा का महादेव से एकांत के लिए प्रार्थना करना और फिर किसी शत्रु का चिंतामणि गृह पर आक्रमण करना, एक चिंता का विषय था। महादेव ने भोजन सभा को विराम देते हुए सहज ही कहा, “चिंता की कोई बात नही है। जो कुछ भी होगा शीघ्र ही सामने आ जाएगा।”

महादेव और माँ जगदंबा, एकांत मंत्रणा के लिए अपने महल में चले गये।

“वारणने, मैं भी आप से बात करने का अवसर ढूँढ रहा था।” महादेव ने आसन पर बैठते हुए कहा 

“तो आज्ञा कीजिए, महादेव।”

“नही, पहले आपका अधिकार है।”

“महादेव, मुझ से एक अपराध हो गया है। मंगल अभिषेक के समय, आपके प्रसाद स्वरूप के बाघछाल, आपकी दुर्लभ दिव्य रुद्राक्ष मालाएँ मिल नही रहीं। मंगल अभिषेकम में विलम्ब ना हो जाए, तो मानसरोवर स्थल पर जाने से पहले मैं उनका कीलन करना भूल गयी और वह सब दिव्य वस्तुएँ ऐसे ही छूट गयी। और जब याद आया तो यह दिव्य प्रसाद अपने स्थान पर नही मिला। नंदी और वासुकि को भी इसके बारे में ज्ञात है। ढूँढने के सारे प्रयास करने के बाद भी हम असफल रहे।”

“और गत पूर्णिमा, जब हमारी संगीत प्रतिस्पर्धा हुई थी, जो बादलों की ज़ोरदार ध्वनि हुई थी। वो किसी लोक की नही बल्कि वो ध्वनि हमारे चिंतामणि गृह के खांडव वन से आ रही थी। शायद वो किसी अज्ञात शत्रु का आक्रमण था। जिस से चिंतामणि गृह के खांड़व वन को क्षति पहुँची थी। मुझे आज ही नंदी और वासुकि से पता चला। आज भी एक और आक्रमण…” माँ ने महादेव को धीमी आवाज़ में अपनी सारी व्यथा कह सुनाई 

महादेव ने क्षणभर के लिये अपने नेत्र बंद किये और मुस्कुरा बोले, “लगता है देवी वामकेशी की वास्तविक सेवा लेने का समय आ गया हैं।”

To be continued…

सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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