कुछ साल पहले की बात है, जब दिन-रात मैं माँ के ही ध्यान में रहता था ।सोते-जागते  बस माँ और उनके सबसे प्यारे पुत्र (प्रिय स्वामी 🌼😍) के चिंतन में, अब भी रहता हूँ पर तीव्रता सम्भवतः कम पर भिन्न प्रकार की है।

वो वक़्त था ,जब मैं स्वांतःसुखाय ही लेखन किया करता था। मेरे मन मे एक ख्याल आया ,जैसे मैंने बताया  दिनभर मैं माँ के भाव मे उनसे बातें करता, वो सुनती है और जबाव भी देती हैं पर समझ थोड़ी देर से आती है। 

मैन कहा माँ मुझे एक कविता लिखनी है ऐसी कविता जिसे पढ़ के हर बार मुझे आप मेरे पास मिलो ,प्लीज़ हेल्प कीजिये न कुछ नही पल्ले पड़ रहा  कैसे शुरू करूँ,…… और फिर  विनती स्वीकार हुई । 

दरसल कविता का भाव यह है कि ,एक बालक है जो अनाथ है, दुनियावी जंजाल से थक हार कर वह टूट जाता है। बस्ती से दूर एक मंदिर में जाकर बैठ जाता है। उसके अंतर्मन में चल रहा द्वंद उसे अंतर्मुखी कर उस परमसत्ता को चुनौती दे डालता है कि ,तुम सच मे हो या  मंदिर में बैठाये  एक पाषाण विग्रह मात्र हो, संयोग से मंदिर माँ का था, और अधितकर स्थानो की तरह एकांत में था । उस मंदिर में बालक का विलाप और माँ का उसे अपने कृपा की छांव में रखना बड़ा ही मार्मिक दृश्य है। आशा है आप को पसंद आये , सम्भव है नॉन हिंदी रीडर्स को भाषा क्लिष्ठ लगे ,अगर आप इसका इंग्लिश अनुवाद चाहते है तो बताए जरूर।

आपको यकीन करने के लिए कविता स्वयं पढ़नी होगी , बाकी आप पढ़ के जान जाएंगे कि ये किसी नौसिखिये के छंद हो ही नही सकते। 

तो आइए चलते है….…

बोलो जगन्माता की जय🌺🌻🌼

एक बार इक बालक मंदिर की देहरी पर बैठा था,

खिन्न ,दुखित मन  न जाने किस गुत्थी में उलझा था?

उर में  मचल रहीं थी  सौ-सौ शोक जलधि की लहरें, कभी चीख़ती  कभी डराती, नित प्रातः सांझ दुपहरे।  

प्राणहीन निःशक्त गती कुम्हलाए हुए अधर थे, अस्ताचल मुख भाव, सघन,अति गहरे घाव लगे थे। दुःख जनित ,कृश पूर्ण अवस्था पीड़ा असह्य भरी थी, अंधकार  छाया चहुँ था, विपदा विकट बड़ी थी। 

था प्रतीत होता जैसे प्रकृति ने प्राण हरे हैं,

उर विदीर्ण क्षत -विक्षत सकल मानो यम स्वयं खड़े हैं, पाने को स्नेह सुधा आत्मा तृषित पड़ी थी,

उस निर्जन  एकांत लोक में अब चीत्कार उठी थी।

क्या करूँ? कहां जाऊं? न जाने नियति  कहां है?

छीन गया सर्वस्व मेरा मृत्यु भी मुझे कहां हैं?

अब आगे माँ का आगमन होता है ।

अगला भाग आपके सामने कल पेश किया जाएगा। 

जय माता दी🌺🌼🌻