जगजननी

पिछले भाग में हमने उस बालक की दारुन दशा देखी जो मंदिर में बैठा था । थक के उसने ग्लानि में विलाप किया , और शिशु के विलाप में माँ सबसे पहले आतीं है। वैसा ही हुआ ।

माँ का आगमन💐💐💐💐

सहसा एक आवाज मधुर कानो में  पड़ी सुनाई,

लाखो पिक न्यौछावर जाए ऐसी थी मधुताई।

यहां कहाँ फिरते हो सुत संध्या बेला हो आयी ,

इस बंजर ,वीराने में क्यों  फूंक रहे तरुणाई?

निकट यहां पर खड़ा हुआ  आक्रांत अरण्य घना है,

दुष्ट, दैत्य ,दुर्दांत योनि का , होता नित वास यहाँ है।

निश्छल ,अबोध, निष्पाप मना जो चले यहां तुम आये,

बंधु, भगिनी ,पिता जननी सब होंगे अति घबराये।

मंदिर था ये भक्त जनों का रहते जो सदा सुखी थे,

साध्य श्रेष्ठ था जिनको केवल ,नही साधनों मुखी थे,

कितनो ने बलिदान किया निज जीवन इस वेदी पर,

दिया ब्रम्ह ज्ञान वसुधा को, सुरनाद हुआ  नभ ,धरती पर।

पर तुम तो निरे बालक हो कहो! किस हेतु यहां तुमआये?

क्षुब्ध भाव मुख में रंजित क्या विरह किसी से पाए? 

यहां माँ ने बच्चे से ठिठोली में पूछा जी यहां क्यों आये हो ये तो वीरान, सुनसान जगह है । तुम्हारे घर वाले परेशान होंगे। 

‘विरह शब्द’ सुनते ही ,वह कांप गया तन-मन से,

शोक जनित ,शोणित विहीन बोला अधकम्पित स्वर से,

थी अवश्य वह मनहूस घड़ी ,जब मैं इस धरा पे आया ,

बंधु , भगिनी ,भ्राता जननी, सुख नहीं किसी का पाया,

एक अनाथ शिशु का संगी ,इस धरा पे कौन यहां है?

कहते हैं, निःशक्त, निराश्रित का ईश्वर सखा यहां है।

है ईश्वर यदि कहीं अगर ,क्यों पकट नही हो जाता?

एक उपकार करे मुझ पर ,वह धरती का भाग्य विधाता,

रही समर्पित काया उसको बनूँ ग्रास बर्बर का,

मुक्त होऊं इस अधम जगत से त्याग करूँ निज तन का।

किन्तु!

हे! जननी हैं कौन आप ? क्यों मुझसे दूर खड़ीं है?

है ओझल मुख  आपका क्यों ? या मुुझमे सामर्थ्य नहीं है।

सही कहा सुत तुमने, जननी हूँ मैं इस सृष्टि की । एक नही ऐसे अनेक लघु ,वृहद ,चराचर जग की

हाय! विपुल संताप दिया इस निर्मम अधम प्रकृति ने ,

पर यह तो था ,विधि का विधान  लिख रखा था जो नियति ने।  

पर अब 

सुत किंचित भर भी शोक न तुमको होगा ,

शूल ,रंज ,आक्रोश नही ,

पुलकित यह जीवन होगा …पुलकित यह जीवन होगा

धन्यवाद

ॐ श्री मात्रे नमः🌼🌺🌻🌻

धन्यवाद

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