सादर नमस्कार।
जब शैतान साधु होना चाहता है
the devil was sick, the devil a monk would be.
the devil grew well, the devil a monk was he.
यानि जब शैतान बीमार हुआ, तब उसने साधु होना चाहा। और जब वही शैतान साधु बनकर स्वस्थ व सतेज हो गया, तब वह फिर से शैतान हो गया।
ऊपरोक्त पंक्तियाँ Francois Rebel नाम के एक लेखक द्वारा लिखी गयी हैं। मैंने इसे एक प्रसिद्ध हिन्दी उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ में पढ़ा था। मुझे ये पंक्तियाँ इतनी अच्छी लगीं कि इन पर कुछ लिखने का मन हो आया।
जब वह शैतान एक बार फिर स्वयं को निस्तेज व मरणासन्न अनुभव करेगा, तो फिर से साधुता की एक छोटी-सी यात्रा पर निकल जाएगा। और ऐसे ही उसके साधुता और शैतानियत में विचरने का क्रम निरंतर चलता रहेगा।
और हम लोग या मैं, भी ऐसा ही तो हूँ जब भी मैं किसी बीमारी या समस्या में फँस जाता हूँ, तो विभिन्न परहेजों और भगवान की प्रार्थना से अपने सोये मन को जगाकर ऐसी साधुता दर्शाता हूँ कि मानो बीमारी या समस्या समाप्त, खत्म हो जाने के बाद भी ये साधुता बनी रहेगी।
किंतु जब ईश्वर कृपा से वह आफत टल जाती है तो फिर से अपने अंधकार भरे कमरे में आलस्य और वासनाओं का वशीभूत हो जाता हूँ। न तो मैं इस हालात का समाधान ढूँढ़ना चाहता हूँ क्योंकि विषय-वासनाओं को भी तो भोगना है, और न ही साधुता के झूठे चोले को उतार फेंकना चाहता हूँ क्योंकि मेरा मन जानता है कि शक्ति का स्रोत वही साधुता ही तो है। तो अब मन दोनों को पकड़ेगा। बीमार होने पर रोएगा, परहेज करेगा और मंदिर भी जाएगा, स्वस्थ होने पर फिर से सो जाएगा, और पदार्थों का भोग करेगा, और फिर से यही क्रम!
ऐसी ही बात संत कबीर ने कही है-
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय ॥
यह क्रम तोड़ना होगा। वरना यह एक ऐसा चक्र है जिसमें फंसकर मेरा जीवन यूंही व्यर्थ चले जाने वाला है। मेरी ही तरह और भी लाखों, नहीं करोड़ों लोग ऐसे ही चक्र में घूमते-घूमते चकरा रहे हैं। रोलर कोस्टर भी कहीं समाप्त होता है, किंतु इस जाल का सिरा तो अनिश्चित है।
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