जिंदगी समझ में कहां आती है

कहां पूरी होती है वो ख्वाहिशें
जो चाहत–ए–रूह हो जाती है

जिंदगी समझ में कहां आती है

रोज़मरा की मुश्किलों को आसान करने में
टुकड़ा टुकड़ा कर के सारी उम्र गुज़र जाती है

जिंदगी समझ में कहां आती है

जैसे दिन ढल जाता है, कुछ देर रहकर
वैसे ही यह जिंदगानी ढल जाती है

जिंदगी समझ में कहां आती है

समय की रेत में, सब मिटता चला जा रहा
कहां मेरी कोई खींची लकीर, बनी रह पाती है

जिंदगी समझ में कहां आती है

और फिर कहते है
की जिंदगी का मिलना बहुत बड़ी इनायत है
मान लिया, मुझे कहां इस बात से कोई शिकायत है

पर क़त्ल-ओ-ग़ारत के इस माहौल में
कितनो को कोई मदद-गारी मिल पाती है

जिंदगी समझ में कहां आती है

शायद कोई मतलब, कोई जवाब, है ही नही
कितने बने, कितने मरे, कोई हिसाब है ही नही
बस नदी की लहर है, जो की बहती चली जाती है

जिंदगी समझ में कहां आती है