आज ठण्ड ज़रा कम थी| शाम के वक़्त कुछ एक-दो लोग सड़क पर टहलते हुए गुलाबी सर्दी का मज़ा ले रहे थे। घर की छत पर बैठे मैं एक बार अनंत आकाश में बादलों को तैरते देखती और एक बार सड़क पर इंसानों को। तभी एका-एक मेरी नज़र एक महिला पर पड़ी जो अपनी गोद में एक करीब एक-डेढ़ साल की बच्ची को लिए टहल रही थीं| थोड़ी देर बाद वह  रुकी और उन्होनें बच्ची को खिलाते हुए हवा में उछाला। माँ और बच्ची खेल-खेल में ही कुछ अलग-सा सिखा गयीं| उनकी आभारी हूँ। यह लेख उसी बात को सांझा करने की कोशिश है| इज़ाज़त दें| 🙏 ❤️️ ❤️️ 

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एक माँ अपनी नन्हीं-सी परी को गोद में लिए हुए है| बच्ची खिलखिला रही है| माँ मुस्कुरा रही है| दोनों के बीच मौन बात कर रहा है| ना जाने कितने ही शब्द आँखों से आँखों तक तैर कर जाते हैं| तभी अचानक खेल-खेल में माँ ने बच्ची को हवा में उपर किया| बच्ची के मन में ज़रा भी डर नहीं आया| उसे विश्वास था कि वो हर हाल में सुरक्षित है| उसकी नज़रें अपनी माँ की ओर थी| ना तो उसे आस-पास चल रही तेज़ हवा से डर था और ना ही उतने ऊँचाई से नीचे गिरने का कोई भय था| तभी माँ ने उसे हलके से हवा में उछाल दिया| एक क्षण के लिये बच्ची की नज़रें माँ की आँखों से हटी और नीचे की गहराई की तरफ़ गयी| एकाएक उसे अपने हवा में होने का एहसास हुआ| इतनी ऊँचाई से नीचे की तरफ़ देखकर उसकी साँसें जम-सी गयीं| आस-पास के खतरों का आभास होने लगा| उसे माँ नहीं दिख रही थी अब|

अभी डर हावी हुआ ही था कि उसकी नज़रें अपनी माँ को ढूँढने लगीं| जैसे ही माँ की आँखों में बच्ची की नज़रें समाईं, साहसा उसका भय समाप्त हो गया| वह फ़िर खिलखिला उठी| उसका विश्वास लौट आया| सारे खतरे अब भी थे| ऊँचाई से अब भी गिर सकती थी| हवा अब भी तेज़ थी| पर उसका डर जा चुका था क्यूँकि उसकी नज़रें अब खतरों को नहीं, अपनी माँ की आँखों को देख रही थी| और हौले से वह हवा में नीचे आती हुई माँ की फैली बाहों में समा गयी|

माँ तो वही थी पर उस बच्ची की नज़रें भटक गयी थीं|

ईश्वर| परम चेतना| हमारा वास्तविक रूप| कुछ भी मानिये उस “माँ” को| पर उसकी बाहों से अलग होकर जब हम हवा में उछाले जाते हैं, तो हवा में बिता वक्त ही जीवन है| हमारी आँखें उसे नहीं देख पा रही है पर इसका मतलब यह नहीं कि वो है नहीं वहाँ| जब हम बहिर्मुखी होते हैं- जब हमारा ध्यान जीवन की कठिनाइयों पर, खतरों पर होता है तो डर हमें घेर लेता है| बेखौफ़ होने का बस एक ही तरीका है- अपनी नज़रों को ” माँ ” पर स्थित रखना – अन्तर्मुखी होना – भीतर ध्यान केन्द्रित रखना| और जिस पल हम दोबारा उसकी बाहो में समा जायें, वही पल मृत्यु है- जीवन का अंत| जीवन से मृत्यु की दूरी बस उतनी ही है जितना की उस बच्ची का हवा से माँ की गोद तक आने का वक्त था| ऐसे में हवा और ऊँचाई को ही सत्य मान लेना या उनसे मोह रखना मूढता ही है|

ध्यान “माँ” पर रखिये – भीतर की अनंतता ही एक मात्र सत्य है| जीवन और मृत्यु दोनो भ्रम है|

❤️️❤️️ॐ श्री मात्रे नमः❤️️❤️️ 

 

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