विषादी सूर्य ढलने की तय्यरी में था |
अंधेरा बेतहाशा सूरज की किराणो पे क़ब्ज़ा कर रहा था |
दूर एक कोने में एक मोमबत्ती हंसकर इठला रही थी,
ना जाने वह किस बात पर बलखा रही थी |
नाचता फुदकता देख उसे,
सूरज पूरा जल उठा |
अब और रहा ना गया उससे
घमंडी मोमबत्ती की ओर वह धौड़ा गुस्से में |
डूबते हुए सूरज की किरणों ने कहा उस जलती शमा से:
“ना कर इतना घमंड अपने जलने पर,
एक दिन तुझे भुजना ही है |
ना इतरा इतना अपने उजाले पर,
एक दिन इसे भी ढलना ही है |”
झुटलाते हुए नक्षर के इन टिप्पणियों को, वह ज्योति हंसकर बोली:
“मिट जाना तो एक दिन सभी को है,
पर उससे क्या डरना?
जीने का मतलब हंसकर जीना है,
डर-डरकर क्या मरना?”
भौचक निगाहों से सूरज मोमबत्ती को देखता रहा,
अभिमानी समझा था जिसे,
वह क्षुद्र दीपक जीवन का पाठ पढ़ा गया,
और इन ही ख्यालों में वह आवक सूरज डूबा चला गया |
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