“अभी युद्ध में मुख्य दैत्यों की बलि देनी शेष है, माँ पार्वती के इस करुणा वाले स्वरूप को महादेव को बदलना होगा।” इंद्र ने अग्नि से कहा।
“इस बार नही, इस बार महादेव माँ पार्वती को नही खोयेंगे। एक बार देवी सती को खो चुके है। वो प्रलय याद है ना आपको। जब आप, अन्य लोकपाल और यहाँ तक की स्वयं नारायण को भी ओझल होना पड़ा था। करोड़ों वर्ष तक ब्रह्मांड थम गया था। माँ ने मेरे ही स्वरूप में अपनी सती देह का त्याग किया था।” अग्नि बोले ।
“जो भी हो, इन दैत्यों को वरदान भी तो महादेव ही देते है। हम स्वर्ग छोड़ कर कब तक कन्दराओं में भटकते रहेंगे।” कुपित वरुण बीच में बोले।
“जो जैसा तप करेगा, ब्रह्मा जी और महादेव उन्हें वैसा ही वरदान देंगे। हम श्री नारायण को तो अपनी ओर कर सकते है क्यों कि देवता उनके प्रिय है, लेकिन महादेव तो सभी के लिए समान रूप से है। अगर हम अपने व्यसनों पर थोड़ा नियंत्रण कर ले, तो हम भी महादेव के वरदान के अधिकारी हो जायेंगे।” देवतायों के गुरु बृहस्पति बोले।
सभी लोकपाल देवता दैत्यों के साथ युद्ध ना ख़त्म होने की वजह से चिंताग्रस्त विचार विमर्श कर रहे थे।
“माँ पार्वती की ही और स्तुति करनी होगी, उनका उग्र स्वरूप ही इन दुष्टों का विनाश करेंगा।” सूर्य निराश होकर बोले
युद्ध भूमि चारों ओर से दैत्यों और देवों के विक्षिप्त अँगो से भरी हुई थी। युद्ध समाप्त नही हुआ था, ना दैत्यों का क्रोध कम हुआ था और ना ही उनका साहस। जीत अभी भी उनके पक्ष में ही थी।
देव किसी गोपनीयस्थल में जाकर छिप गये थे और केवल माँ और उनकी सहचरीयां ही युद्ध कर रही थी। दैविक इतिहास में यह पहली बार हो रहा था, जब की पुरुष विवश होकर देख रहे थे, और नारी शक्ति रक्षा कर रही थी। दैत्यराज ने यही वरदान माँगा था कि यदि उसकी मृत्यु अटल है तो वो एक स्त्री के हाथों हो अन्यथा ना हो…
देवी माँ ने राक्षसों का वध करना आरम्भ कर दिया था लेकिन फिर भी दैत्य संख्या में कम नही हो रहे थे, रक्तबीज नाम का एक राक्षस उनकी सेना को बढ़ा रहा था। अगर एक रक्त बीज मरता तो अनगिनत रक्त बीज पैदा हो जाते, जैसे ही उसका रक्त भूमि पर गिरता।
देवों ने माँ की स्तुति आरम्भ की। माँ भी इस सत्य को जानतीं थी कि देवता बिना किसी निजी कारण से ऐसे ही किसी की स्तुति नही करते। लेकिन राक्षसों ने इतना अधर्म स्थापित कर दिया था कि धर्म की रक्षा के लिए दैत्यों का संहार करना आवश्यक था।
जैसे रक्तबीज का अस्तित्व भिन्न था, उसी प्रकार माँ को भी भिन्न स्वरूप धारण करना पड़ा उसके अस्तित्व का विनाश करने के लिए।
देवों ने माँ की स्तुति आरम्भ की। उनकी कल्पना में भी नही था कि यह स्तुति नही, प्रलय का निमंत्रण है। जिस क्रोध और बेचैनी के साथ देवगण स्तुति कर रहे थे और उसी भाव से माँ का आवाहन भयानक स्वरूप धारण कर रहा था।
गर्जते बादलों के साथ वातावरण धूमिल और काले रंग का हो गया। प्रलयकरी आँधी चल रही थीं। नदीयाँ और सागर अपने किनारे छोड़ कर बाहर की ओर बहने लगे। हर तरफ़ दिल को दहला देने वाला भयानक सन्नाटा था, सभी एक गम्भीर और उच्च स्वर में कुछ बीज मंत्रो का उच्चारण कर रहे थे। यह ध्वनि बहुत ही रौद्र और ऊँची थी और कुछ पलों के लिए यह आवाहन विराम ले ले लेता था। ऐसा लग रहा था कि कोई बहुत पुकारने और स्तुति करने पर भी नही आ रहा था। आकाश इतना धूमिल हो चुका था जैसे चमगादडों से आकाश पूरी तरह ढक गया हो।
यज्ञ कुंड में एक धुँआ सा प्रतीत हुआ, उसमें एक स्त्री की परछाईं थीं और अब वह धुँआ स्पष्ट होता हुआ अपना प्रत्यक्ष स्वरूप ले रहा था। यह तो माँ थीं जिनका आवाहन किया जा रहा था लेकिन इतनी विशाल, उग्र और काली कि भय से उनकी तरफ़ केवल शीश ही झुक सकता था।
भय और प्रेम में नेत्र स्वतः ही बंद हो जाते है।
इतने में उनके अंगों ने स्वरूप लेना प्रारंभ किया। माँ के नेत्र रक्त वर्ण के और क्रोध में परिवर्तित हो गये। उन नेत्रों में करुणा की जगह, प्रतिशोध था। माँ का सौम्य गोरा रंग, अब काला और शुष्क हो चुका था। माँ की त्वचा रुखी और शक्त हो गयी थी। माँ की मुस्कुराहट, अब क्रोध की फुँकार में परिवर्तित हो गयी थी। माँ का स्वरूप इतना भयानक हो गया था कि स्वयं देवता भी भयभीत हो कर कांप रहे थे । माँ के लाल नेत्रो में विनाश की ज्वाला थी, क्रोध से फड़फड़ाते होंठ, काले लेकिन रूखे और खुले बाल, अष्ट भुजी लेकिन कोई भी हस्त, वरद हस्त मुद्रा में नही था, सभी हस्त केवल अस्त्रों-शस्त्रों से सुसज्जीत थे।
माँ ने कोई भी आभूषण और ना ही कोई आवरण धारण किया था।
बिना आभूषण और आवरण के, केवल भयभीत करने वाला स्वरूप था, उसमें रत्ती भर भी कामुकता नही थी। क्योंकि कामुकता के लिए सुंदरता, मुस्कुराहट और सौम्यता होनी चाहिए। माँ के इस स्वरूप में सृष्टि क्रम दिखाई दे रहा था।
जैसे ही माँ को जाग्रत करने वाले मंत्रो की आहुति सम्पन्न हुई, माँ अपने काल स्वरूप में सम्पूर्ण आ गयी। यही से माँ का नया नाम काली देवी हुआ।
इस से पहले देवता गण माँ के स्वागत में स्तुति करते, माँ ने अपनी क्रुद्ध दृष्टि किसी की ओर नही डाली और माँ सीधे ही तीव्र गति से चल पड़ी। देवता गण निम्न दृष्टि करके माँ के रास्ते से एक तरफ़ हो गये।
देवतागण स्वयं भी हैरान थे कि उनकी स्तुति से क्या माँ की इस प्रकार की संरचना हुई है?
युद्ध भूमि में माँ अट्टहास करती दैत्यों का ऐसे संहार कर रही थी कि जैसे किसी उपजाऊ भूमि से टिड्डी दल को ख़त्म किया जाता है। काली माँ का खड्ग उनके शीश ऐसे भूमि पर गिरा रहा था, जैसे वृक्षों से सूखे पत्ते भूमि पर गिरते है। कुछ शीश ऐसे गिर कर फट रहे थे और रक्त-माँस की विभीत्स वर्षा हो रही थी।
कुछ रक्त से लथपथ और माँस से लोथड़ों के साथ कटे हुए सिर माँ के गले में वैजयन्तीमाला जैसे झूल रहे थे।
काली माँ ने स्वयं का स्वरूप और भी विशाल और विकराल कर लिया । अब खड्ग का प्रयोग नही हो रहा था। अब माँ एक ही श्वास में सैकड़ों दैत्यों को अपनी तरफ़ खींच कर खा रही थी और चबा चबा कर फेंक रही थी। माँ की जिह्वा, दाँत और पूरा मुख रक्त से भर गया था। जैसे जैसे माँ दैत्यों को स्वाहा कर रही थी, वैसे वैसे माँ का अट्टहास और भी भयभीत करने वाला हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि ब्रह्माड़ का अस्तित्व लुप्त हो जायेगा। मरे हुए दैत्यों के शीश और उनकी कटी हुई भुजाओं को माँ ने अपना आवरण बना लिया।
रक्तबीज युद्ध में ही था, लेकिन उसके बीजों का तीव्रता से नाश हो रहा था। उसको लगा कि उसके साथ छल हो रहा है। वह लड़ते हुए सोच रहा था कि सुंदर दुर्गा देवी के ऐसे क्रूध दानवीय स्वरूप की तो कल्पना भी नही की जा सकती। यह देवतायों की, ब्रह्मा या विष्णु किसी की संरचना नही हो सकती और शिव पत्नी इतनी रौद्र और भयानक नही हो सकती, उनकी सुंदरता से अतिमोहित होकर तो यह युद्ध हो रहा है, दैत्यों का नाश हो रहा है। कहीं यह कपटी देवतायों की कोई माया तो नही।
सत्यता को जान ने के लिए वो स्वयं युद्ध भूमि में काली माँ के सामने आकर उनके विपक्ष में लड़ने लगा। उसे यह पूर्ण विश्वास था कि काली एक वीर पुरुष के सामने टिक नही पायेगी।
To be continued…….
सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके ।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।
Next episode will be posted on dated- 6am, 19/02/2021
अगला क्रम आपके समक्ष पेश होगा, दिनांक- प्रातः6 बजे, 19/02/2021
Dear Reader,
Thank you for taking out the time to read this blog. Hope it was worth it for you. It surely has been a life changing experience for me.
Before I say more, I must state that ‘Tandav’ is a work of fiction. It is my interpretation of the countless stories of Devi Maa that I grew up listening to.
I thank my Gurudev, Sri Om Swamiji for He is the embodiment of the Divine Mother herself and also the inspiration behind this series. Swamiji occasionally shares His journey, learning and in-depth understanding of the world of writing with us. And we his ever so eager eared disciples gulp down this knowledge like hungry kids. It was after one such morning discussion, that I was pulled towards penning down my thoughts. I wanted it to be something that could be a befitting ode to Him. But what could it be? That night, after my evening puja, walking under the beautiful moonlit sky at the Ashram, I was enjoying the bliss of Devi Maa’s mantra. That’s when the idea of writing about ‘Maa’ as I felt for Her dawned on me.
I am but Her humble child and by writing about Her, I dwell on Her now more than ever, feeling more and more close to Her.
I have chosen to write in Hindi because that it is the story of our deities and so best told in the language I have read and heard them in most.
So, today on this beautiful date of 13th February, when our Almighty got His first darshans of Devi Maa, I bring to you this series as a eulogy to beautiful, ever so compassionate Mother Divine.
I cannot stop here without thanking Revathi Raghavan Om, Nikunj Verma Om, Dipti Sanghavi Om, Priyanaka Om and Navjot Gautam for their unconditional support and time.
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