अब चिंतामणि गृह  पर पहले जैसी चहल-पहल की कोई आवाज़ नही थी, ना ही कोई हँसी-ठिठोली की। माँ और महादेव के लीला स्थल ने अनंत काल के लिए मौन धारण कर लिया था।

चिंतामणि गृह महादेव ने देवी पार्वती को एक उपहार में दिया था। जब तक तो महादेव एकाकी थे तब तक तो शिव शवों के साथ भी शमशान में रह लेते थे। उनके लिए सब एक समान था। लेकिन जब देवी आयीं तो अघोरी महादेव का रहने का ढंग भी भव्य हो गया। महादेव का उपहार देने का ढंग भी निराला था। माँ को चिंतामणि ग्रह और रावण को सोने की लंका……दोनो ही अपने आप में प्रसिद्ध लोक थे।

चिंतामणि स्थान के रंग बिरंगें पेड़ों वाले पर्वत हर दिन अपना रंग बदलते थे। जिस से दिन का रंग ही बदल जाता था। कभी ये पहाड़ नीले दिखाई देते थे, कभी नारंगी तो कभी लाल और आधे पीले और आधे गुलाबी। कभी कभी सारे पर्वत खुद को बर्फ़ की चादर से ढक लेते थे। यहाँ के रेगिस्तान बहुत ही सुंदर थे, वहाँ रेत का रंग भूरा नही बल्कि श्वेत रंग की थी। और इसी रेगिस्तान में नीले रंग के बड़े बड़े जलाशय भी होते थे। जिस से यहाँ का मौसम भीष्म गर्मी वाला नही होता था।

यहाँ के झरनें इतने विशाल थे कि दृष्टि की पहुँच में नही होते थे। ऐसा लगता है उनका एक छोर आकाश से स्पर्श कर रहा है और दूसरा पाताल से और दिन में कभी इन झरनों की आवाज़ बहुत ऊँची हो जाती थी और रात्रि में कभी बिल्कुल बंद।

सबसे अनूठी बात यह थी कि ये रेगिस्थान, बड़े बड़े जलाशय, ऊँचे झरनें और रंगों से भरे पर्वत आदि सब अपने क्रम के अनुसार अपना स्थान भी बदल लेते थे और यह क्रम चलता था पूर्णिमा और अमावस्या के अनुसार।

हर दिन कुछ नया और कुछ अलग दिखता था। ऐसा लगता था कि प्रकृति भी उत्सव मना रही है। उद्यानों में बहुत सारी कोयलें और अन्य पक्षी एक सुर में गाते हुए वातावरण को और ख़ुशनुमा बना देते थे।

चिंतामणि गृह  ब्रह्मांड की आकाश गंगा में स्वतंत्रता से ही विचरण करता था। कभी कभी ऐसा भी दृश्य होता था कि इस गृह के आस पास जो उपग्रह-ग्रह इसकी परिक्रमा कर रहे होते थे, वो तक दिखाई देते थे। चिंतामणि गृह एक खुले वायुयान जैसे प्रतीत होता था।

महादेव को अपने गण, अघोरी, भूत-प्रेत, पिशाच आदि जो सब कहीं से वहिष्कृत थे, सर्वाधिक प्रिय थे। इसलिए महादेवी ने महादेव की प्रिय प्रजा के लिए अलग से चिंतामणि का एक बड़ा भूखंड उनकी इच्छानुसार बनवाया था। ताकि महादेव का दिल चिंतामणि गृह में रमता रहे। इस स्थान का नाम शिवपुरी रखा गया। कभी कभी महादेव अपने प्रिय संगी-साथियों के साथ यहाँ भांग का भोग लगाते थे। यहाँ महादेव का समाधिष्ट होना वर्जित था और कैलाश तपस्थली पर महादेव का भव्य ढंग से रहना।

लेकिन जब से माँ दैत्यों पर विजय प्राप्त करके और अपने काली स्वरूप से परिचित होकर लौटी थी तब से यहाँ दिन में भी रात ही प्रतीत होती थी क्यों कि यहाँ का सूर्य तो माँ का मुखमंडल देख ही उदय होता था और माँ ने स्वयं को कक्ष में बंद कर रखा था। प्रातः काल में होने वाले गंधर्व मंगल गान बंद करवा दिए गये थे। पशु-पक्षियों ने परस्पर बातें करना बंद कर दिया था। मधुर लय गाती लतिकाएँ अलोप होने लगी। जिन इंद्र धनुषिय झरणों में माँ स्नान करती थी, वो झरनें धीरे धीरे  सुख रहे थे। जो पेड़ पौधे सूर्य की रोशनी में उत्पन्न हो जाते थे और चंद्रमा की रोशनी में मुलायम घास बन जाते थे, वे अलोप हो रहे थे। क्यों कि अब उस गृह के ना तो सूर्य सेवा में थे ना चंद्रमा। वहाँ कितने ही समय से अमावस्या ही चल रही थी। माँ जब केशों का ऋंगार करती थी, तो उसमें चम्पा के पुष्प लगते थे, उन से ही ग्रह के तारे टिमटिमाते थे, लेकिन अब वे भी नाममात्र रह गये थे।

चिंतामणि गृह का प्रकृति क्रम केवल माँ का ही अनुसरण करता था। लेकिन अब सभी गम्भीरता से सेवा कर रहे थे। कोई आपस में उस दिन को लेकर कोई बात भी नही करना चाहता था। सभी को अपनी स्वामिनी देवी की बहुत चिंता भी थी और भय भी।

देवी अत्यधिक उदास और मौन में रहती थीं। माँ को रह रह कर अपना काली स्वरूप याद आता और माँ गहरे विचारों में खो जाती। सोते हुए माँ को अपने खड़ग की विनाश करने वाली आवाज़ सुनाई देती, वही आवाज़ जब वो दैत्यों का वध कर रही थी जैसे खेत में से फ़सल काटी जाती है। अपने ही अट्ठहास की भयानक आवाज़, रक्त पी कर माँ के मद भरे नेत्र और क्रोध में नृत्य करना आदि सब बहुत भयानक यादें लाते। दैत्यों का हो हो करके वीरता पूर्ण आक्रमण करना, माँ के हाथों उनकी वीरगति होनी आदि यह सब माँ को ऐसे लगता था कि जैसे कल ही हुआ हो।

और जब माँ को याद आता की कि कैसे माँ ने शिव को शव समझ कर ज़ोर से उनके वक्ष स्थल पर अपने चरण से प्रहार किया था तो माँ अचानक से बहुत ज़ोर से चीख़ कर क्रूदन शुरू कर देती थीं और क्षमा याचना करती। माँ का क्रूदन सुन कर निजी सविकाएँ और स्वयं महादेव बहुत बार दौड़ कर माँ के पास आ जाते थे। इस से वातावरण बहुत ही गमगीन रहता था।

महादेव किसी ना किसी बहाने से माँ को बुलाने की कोशिश करते तो माँ बहुत दयनीय भाव से उत्तर देती। माँ की मानसिकता बहुत निर्बल हो रही थी। माँ ने शिव के ऊपर से अपना अधिकार ही ख़त्म कर दिया था।

भयानक विचारों से बचने के लिए माँ घंटों ही शीतल जल धारा को अपने शीश पर लेती रहती या अकेली ही महादेव के बिना कहीं कहीं चली जाती। महल में से सारे दर्पण निकाल दिए गये थे क्यों कि माँ स्वयं को देख कर काली स्वरूप के बारे में पूछने लगती थी।

एक दिन अपने हाथों की ओर देख कर माँ अकेले ही बड़बड़ा रही थी।

“क्या इन्हीं हाथों और नखों से मैंने शव फाड़े थे?”

“नही स्वामिनी, वो एक अलग माया थी। आप में तो महादेव की शक्ति काम कर रही थी।”

“नही, देवी कामाक्षी, वो निर्ममता मेरी ही थी। मुझे पता ही नही चला कि मेरा स्वरूप कब परिवर्तित हो गया।”

“उस स्वरूप ने अभी तक मुझे नही छोड़ा।” कह कर देवी अपने हाथों को फिर से घूरने लगी

एक दिन किसी जलाशय की ऊपरी सतह पर माँ एक लाश की भाँति तैर रही थीं तो श्री कामेश्वरी और श्री भारूँडा देवी ने देखा और तुरंत माँ को पानी की सतह से बाहर ले आयी। उन्होंने दूसरी निजी सविकायों को भी माँ की अवस्था से अवगत करवा दिया। वे माँ को प्रसाधन कक्ष में ले गयीं। फिर श्री नित्यकलिन्ना और श्री भगमालिनी देवी ने माँ को नए वस्त्र पहनाये, अति प्रेम से माँ का ऋंगार किया और बातें कर रही थीं। लेकिन माँ मौन में अपने ही विचारों में खोयी हुई थी। माँ ने कोई उत्तर नही दिया। देवी महाव्रजेश्वरी और देवी वहनिवासिनी ने माँ के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाया हुआ था और माँ के बहुत मना करने पर भी अति प्रेम से भोजन खिलाया गया। उसके उपरांत श्री शिवदूति और श्री कुलसुंदरी देवी ने माँ को उनका प्रिय मिष्ठान का भोग लगाया और अपनी सारी सखियों को भी एक साथ बुला कर खिलाया।

श्री त्वरिता और श्री नित्या देवी ने संगीत का आयोजन किया। दोनो देवियाँ बहुत ही सुंदर गाती थीं। श्री विजया देवी और नीलपताका देवी ने अपने अपने वाद्य से मनमोहक संगीत बजाना शुरू किया और साथ ही में श्री सर्वमंगला, श्री ज्वलमालिनी और चित्रा देवी ने अप्सरायों से भी सुंदर नृत्य करना शुरू कर दिया।

माँ भी एक हल्की ताली के साथ उनको प्रोत्साहन दे रही थी। आज बहुत समय के बाद कुछ बदला था, माँ अपनी प्रिय सखियों में बैठी थी लेकिन इसका अर्थ यह नही था कि सब अच्छा था।

उस दिन के बाद माँ की १५ परम निजी सेविकायों ने माँ के इर्द-गिर्द ही अपनी दिनचर्या शुरू कर दी। उन्होंने अपना कार्यभार एक तरफ़ रख कर दिन रात माँ की सेवा शुरू कर दी थी। अपनी सेवा को उन्होंने अमावस्या से लेकर पूर्णिमा की तिथियों में विभाजित कर लिया था।

दिन में एक बार सभी १५ देवियाँ एकत्रित हो माँ को मध्य बिठा कर बारी बारी से माँ की चरण सेवा ज़रूर करती थीं। हँसी-ठिठोली करने का और संगीत का वातावरण बनाने की कोशिश करतीं और कभी कभी माँ से आध्यात्मिक और भौतिक विषयों पर ज्ञान प्राप्त करतीं थीं। इस दौरान माँ ने ममतावश सभी देवियों को कई अति दुर्लभ गुप्त रहस्य भी बताए। माँ चाहे कितना भी इंकार करती लेकिन सभी का यही प्रयत्न रहता था कि माँ को एकांत में नही छोड़ा जाए और ना ही उन्हें कुछ नकारात्मक सोचने का अवसर देना चाहिए। केवल जब महादेव माँ के पास होते तभी वो अपनी सेवा से अवकाश लेतीं।

लेकिन माँ अभी भी बीती घटनायों से उभर नही पायी थी,

गणेश और कार्तिक जो पहले की हर छोटी बात पर पहले की भाँति झगड़ कर अपनी माँ के पास पहुँचते थे, अब वो सहम गये थे, माँ के स्वरूप के बारे में सुन कर।

To be continued…….

सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

अगला क्रमांक आपके समक्ष  9 am 11-Mar-2021 को पेश होगा.
The next episode will be posted at 9 am on 11-Mar-2021

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