“महादेव, अभी तो भविष्य के लिए निर्णय लेने का समय है।”
“आशुतोष, अगर आप कृपा करे तो मैं इस पूरे रहस्य को जानना चाहती हूँ।” माँ ने नारद जी की बात को नकारते हुए कहा
देवी के आग्रह पर महादेव ने बताया कि पिता की निर्मम हत्या का दुःख और शत्रु का वैभव देख कर शुम्भ-निशुंभ के हृदय में प्रतिशोध की ज्वाला दिन-प्रतिदिन बढ़ती गयी। परंतु उनके मन में एक अटूट विश्वास था कि ब्रह्मा जी और श्री नारायण, दानवों के हित में है। उन्हें लगा कि श्री नारायण विवशता से ही दानवों के विरुद्ध कुछ करते है। इसी जिज्ञासा को लेकर दोनो ने सर्व प्रथम ५००० साल ब्रह्मा जी की आराधना की, लेकिन ब्रह्मा जी ने उनका उद्देश्य जान कर उनके तप को बीच में ही रोक कर कहा कि उन्हें श्री विष्णु से यह वरदान प्राप्त होगा। उन्होंने पूरी तन्मयता से श्री हरि की आराधना शुरू की। तप के मध्य में इंद्र ने उनका तप खंडित करने के लिए अनेकों साधन किए। इंद्र ने बार बार दोनो भाईयों को उनकी साधना के दौरान तक्षक से कटवाया ताकि असहनीय पीड़ा से वो तप ना कर सके और साधना खंडित हो जाए। उनका रखा हुआ भोजन या फल आदि काँटों में परिवर्तित हो जाते थे। लेकिन वे काँटे खा कर ही अपना पेट भर लेते थे। सहसा ही उनका स्नान जल कीचड़ का हो जाता था ताकि उनकी साधना का नियत समय निकल जाने से साधना खंडित हो जाए। उनके जप के समय बहुत सारी जानवरों की रोने की आवाज़ें आती थीं और उन्हें अनियंत्रित प्राकृतिक आपदायों को झेलना पड़ता था परंतु उनके हठ के आगे सब विफल हो गया।
२५००० साल बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई तो भगवान पुंडरीकाक्ष प्रगट हुए तो उन्होंने श्री भगवान से अमर होने का वरदान माँगा। श्री विष्णु हँस पड़े और उन्हें बोले, “किस की मृत्यु कैसे होनी है या किस को कैसे अमरत्व दिया जाए, यह मेरे अधिकार क्षेत्र में नही है। आपको महादेव से यह वरदान प्राप्त होगा।” और महादेव की साधना को करने का मार्ग बता कर अंतरध्यान हो गये।
इस से शुम्भ-निशुंभ कुंठा में आ गये क्यों कि ३००००साल के तप, समय और भक्ति का उन्हें कोई भी सफल परिणाम प्राप्त नही हुआ और ना ही कोई दर्शनों का लाभ।
इस बार उन्होंने पूरे तमोगुण लेकिन पूर्ण समर्पण और हठ योग में महादेव की आराधना आरम्भ की।
उन्होंने बिना अन्न-जल ग्रहण किये, महीनों ही अग्नि में तप किया, फिर शीत ऋतु में शीतल जल धारा में तप किया, तद्पश्चात भीष्म गर्मी केवल शीश बाहर था और सारा शरीर रेत के अंदर समा कर तप किया। उनके शरीर को दीमक खा गयी लेकिन उन्होंने महादेव के तप का त्याग नही किया। पहाड़ की चोटी की नोक पर एक टांग पर खड़े होकर अथक तप किया, निद्रा ना आने के लिए, वो आँखों में मिर्ची लगा कर जप करते थे। इस प्रकार उन्होंने निद्रादेवी को भी जीत लिया था।
बाधाओं को तो उन्होंने पहले ही परास्त कर दिया था। महादेव का तप करने से उनका शरीर वज्र का सा हो गया और उनकी उत्कंठा और बढ़ने लगी।
इतने कड़े तप से उनकी आसुरी शक्तियों को धीरे धीरे बल मिलने लगा, और यही समय था कि उनके तप को रोक दिया जाए।
अगर ऐसा ना किया जाता तो प्रकृति बाध्य होकर उनके अनुसार अपना क्रम बदल लेती। और वो बिना किसी युद्ध के ही विजयी और अमर हो जाते।
शुम्भ-निशुंभ के घोर तप से महादेव बहुत ही प्रसन्न हुए और उनकी तपस्थली पर प्रगट हो गये।
“वत्स, मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हुँ।”
“हे महादेव, हे त्रिशूलपाणि, हे निलकंठ, आपकी जय हो! हे स्वामी, हम आपकी शरण में है। हमें स्वीकार कीजिए। ब्रह्मा जी, श्री हरि और किसी भी देव जन ने हमें नही अपनाया। हम कितने ही हज़ारों सालों से तप कर रहे है, लेकिन अब हम में क्षमता नही है, हम थक गये है।
हे नाथ, क्या हम आपके नही है? क्या देव और हम सब समान नही थे? या हम ने समुद्र मंथन में कम शौर्य दिखाया। हमने तो मंथन के दौरान घर्षण से उत्पन्न होने वाली वासुकि की अग्नि को भी सहन किया और उसके ताप के कारण झुलस कर हम सब कुरूप हो गये। उसके बदले में हमें क्या मिला- बहिष्कार, युद्ध में हार और हमारी पीडियों के लिए दासित्व और कुरूपता। और आपने देवों को ही सारी दिव्य और उपयुक्त चीज़ें प्रदान कर दी। हमारे साथ ही यह अन्याय क्यों? हमारी रक्षा कीजिए” ऐसी स्तुति करके रुदन करने लगे
शुम्भ-निशुंभ मन में छिपे अपने अपार विषाद को महादेव के आगे प्रगट कर रहे थे। उनकी ऐसी वेदना वाली पुकार सुन कर तो करुणामय आशुतोष के नेत्रों में भी जल आ गया।
महादेव आज शुम्भ-निशुंभ के पास केवल वरदान देने नही, बल्कि उनके मन में चल रहे द्वन्द को भी शांत करने आए थे।
“देवों को दिव्य चीज़ें इसलिए दी गयी क्यों कि उन चीजों का कुछ भी उपयोग दानवों के लिए नही था। वासुकि किस की ओर से थे, सुमेरु पर्वत किस के थे, किस की पीठ पर सुमेरु को रख कर मंथन हो रहा था। कभी आपने यह सोचा? यह सब देवों की ओर से ही था।
और आप क़तई बहिष्कृत नही है। अगर आपको ऐसा लगता भी है तो क्या आपने उसके पीछे का कारण जाना? दानवों की उद्दंडता ही इसका कारण है।”
महादेव की यह एक बहुत बड़ी लेकिन रहस्यमयी खूबी थी कि वो कभी भी किसी की ना तो शिकायत सुनते थे और ना ही भावनायों में बह कर या फिर आक्रोश में अपना मत देते थे। जब माँ ने कहा कि वो युद्ध नही करेंगी, तब महादेव ने उन्हें उनका दायित्व याद करवा कर युद्ध करवाया और आज जब शुम्भ-निशुंभ अपनी व्यथा कह रहे थे तब भी महादेव ने उन्हें सत्यता का दर्पण दिखा कर समझाया। भावनायों की आँधी को महादेव अपने करुणामयी शब्दों से शांत कर देते थे।
“आप सत्य हो, आप ही शिव हो अर्थात् आप सम्पूर्ण जगत के दाता हो और हमारे लिए आप ही ईश्वर हो। सुंदर हो अर्थात् जहां आप विराजमान हो, वहाँ का हर कृत्य सुंदर है और वहाँ का हर क्षण सुंदर है। हे नाथ आपको हमारा कोटि कोटि नमन है- आप सत्यम शिवम् सुंदरम हो !
हम जैसे भी है, आपके है और अब आपके बिना हमारा समर्पण किसी को नही।”
“वरदान माँगो और अभय को प्राप्त हो जाओ।” महादेव ने उन से अति प्रसन्न हो कर कहा
“हमारे बल के आगे तीनो लोक टिक ना पाए। धन, ऐश्वर्य और तीनो लोकों की विलास सम्पदा के हम अधिपति बने। हमारे शौर्य की प्रसिद्धि चारों ओर हो, देवों की भाँति हमारी भी पूजा हो, ऐसा वरदान दीजिए।” शुम्भ बोला
“तथास्तु और माँगो !
“प्रभु, अगर वास्तव में ही आप हम पर अति प्रसन्न है तो हमें अमृतपान करवा दीजिए।” निशुम्भ ने कहा
“यह तो असम्भव है, क्यों कि वह मुहूर्त, काल, पात्र, स्थान और अवसर सब अब एक से नही है।”
“प्रभु, तो फिर हमारा वध ब्रह्मा, विष्णु और आपके के द्वारा भी ना हो।” तो शुम्भ थोड़ा क्षीण होकर बोला
“तथास्तु, लेकिन आप की मृत्यु का चयन आप स्वयं कर सकते हो, यह वरदान मैं आपको दे सकता हूँ।” भोलेबाबा उनकी बात को गहराई से समझते हुए मुस्कुरा कर बोले
“स्त्री संसार की सबसे निर्बल जीव होती है, भीरु, बुद्धिहीन, निर्भर और भावनायों में बहने वाली होती है। अगर हमारी मृत्यु निश्चित ही है तो वो एक स्त्री के हाथों हो, ऐसा वरदान दीजिए।” निशुंभ ने शीघ्रता से ऐसे कहा जैसे कि दूसरे विकल्प के लिए उसने पहले ही सोच रखा था
“तथास्तु, क्या कुछ और माँगना चाहते हो?” महादेव नही चाहते थे कि प्रकृति के कोष में उनके तप का एक क्षण भी रहे, नही तो प्रकृति को शेष तप को कितने गुणा वापिस करना पड़ता। इसलिए महादेव उनको वरदान पर वरदान दे रहे थे।
“हम ने जीवन पर्यन्त बहुत ही अपमान और संकट झेले है। कभी कभी दानवों में भी देवों के गुण हावी हो जाते है और हम नही चाहते कि हमारे भीतर का दानव कभी मरे।
हे महादेव, हमेशा हमें स्मरण रहे कि हमारे साथ क्या क्या अनिष्ट हुआ और हम उसका ममर्ता के साथ बदला ले सके।”
“तथास्तु, जैसी आपकी इच्छा।” ऐसा कह कर महादेव अंतरध्यान हो गये।
शुम्भ-निशुंभ ने महादेव की इतनी प्रसन्नता प्राप्त की लेकिन भाग्य की विडम्बना ऐसी थी कि महादेव के बार बार वरदान देने पर भी उन्होंने केवल अपनी मृत्यु का ही सामान वरदान में माँगा। वो यह भी प्रार्थना कर सकते थे कि महादेव, उनके मन, बुद्धि और वाणी में निवास करें। लेकिन उन्होंने उस बुद्धि को माँगा जो उनके बदले की अग्नि को बूझने ना दे।
“लेकिन मैं अभी भी इस रहस्य को जान नही पायी कि मुझ से ही क्यों दानवों का वध करवाया गया?”
To be continued…
सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।
अगला क्रमांक आपके समक्ष 02-Apr-2021 को पेश होगा.
The next episode will be posted at 02-Apr-2021.
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