“वासुकि, हम जल्दी ही कैलाश की ओर प्रस्थान करेंगे। बस थोड़ी सी व्यवस्था करनी होगी।”

“जी प्रभु, जैसे आप कहे, लेकिन माता अभी भी॰॰॰॰॰

वासुकि महादेव के अति प्रिय निजी सेवक थे। वैसे तो वो एक सर्प थे और महादेव के कंठ की शोभा बनते थे। लेकिन हर समय वो एक सर्प के रूप में नही रहते, बल्कि एक सुडौल पुरुष के रूप में एक विनम्र सेवक की भाँति महादेव की सेवा में रहते थे। गम्भीर वासुकि बोलते बहुत कम थे और अपनी मनचाही नीली-हरी आँखों से सारे वातावरण का निरीक्षण कर लेते थे। महादेव के गले में विराजमान होने की वजह से भी उन्हें कम बोलने की आदत थी लेकिन उन्हें स्वतंत्र होकर महादेव के पर्वत जैसे कंधों पर विचरण करना भी बहुत ही अच्छा लगता था। संगीत वादन के समय ही उनके मुख पर मुस्कुराहट देखी जा सकती थी या जब महादेव डमरू बजा रहे होते थे। फिर तो वो स्वयं भी नृत्य करना शुरू कर देते थे।  

सागर मंथन के समय वासुकि सर्प ने एक बड़ी रस्सी बन कर बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दैत्यों ने और देवों ने वासुकि का एक एक सिरा पकड़ कर सुमेरु पर्वत से समुंदर का मंथन किया था। इस से वासुकि का सारा शरीर छिल गया, रक्त से भर गया था और दर्द से उनके मुख से अग्नि उत्पन्न हो रही थी। वो बस अब अपने प्राण खो ही रहे थे कि समुद्र से हलाहल निकल आया और महादेव को आमंत्रण दिया गया। महादेव को देख कर सभी दैत्य और देव, मंथन छोड़ कर हर हर महादेव कहते हुए उनकी तरफ़ दौड़ पड़े। लेकिन चाह कर भी रक्त से लथ-पथ वासुकि हिल भी नही पाए और वही असहाय अधमरी अवस्था में सागर में लेटे रहे।

जब महादेव सागर में उस स्थान पर पहुँचे। तो वासुकि की दयनीय दशा देख कर महादेव ने बड़े प्यार से वासुकि के शीश को सहलाते हुए कहा, “शाबाश, मैं आपके निःस्वार्थ सहयोग से अति प्रसन्न हुँ। बस थोड़ा सा और सहन करना होगा, यह परीक्षा का अंतिम पड़ाव है। जो आपको मिलने वाला है, उसकी कल्पना तो कभी देवों ने भी नही की होगी। आप पूजनीय होंगे और मेरे कंठ का आभूषण कोई रत्न नही बल्कि आप होंगे। कुंडलिनी जागरण का संकेत भी आप ही के चिन्ह से माना जाएगा। किसी भी पूजा स्थल पर आपकी उपस्तिथि मेरे वहाँ विराजमान होने का संकेत होगा।” ऐसा कहते हुए महादेव ने अपने मुख में से कुछ बूँदें विष की वासुकि को भी पिला दी। वो विष नही, वो तो महाकाल का महाअमृत था। वासुकि में नयी ऊर्जा आ गयी। ऐसी सेवा का अवसर ना कभी किसी ने सुना था और ना ही किसी को प्राप्त हुआ था। विष की एक दो बूँदें धरती पर गिर गयी थी, उन से उसी समय अति ज़हरीले जीव उत्पन्न हो गए थे। उसके बाद वासुकि ने मंथन से निकले अमृत का पान करने से इंकार कर दिया था। क्यों कि उन्हें नही लगता था कि महादेव के महाप्रसाद के बाद उन्हें किसी अमृत की आवश्यकता थी।

महादेव के हलाहल पान के बाद, वासुकि को महादेव के कंठ की सेवा मिल गयी थी। वासुकि अपनी काया के तापमान से महादेव के कंठ को कभी भी अत्यधिक नीला और ठंडा नही होने देते थे। उस समय जितने भी जीव-जन्तु जैसे कि सर्प, बिच्छू, अजगर, छिपकली आदि पैदा हुए थे। क्यों कि उन सभी की प्रवृति भी ज़हरीली थी तो सभी के मुखिया वासुकि थे। इनका कार्यभार उन सभी जीव-जंतुयों की योनि के अनुसार उनके आहार का प्रबंध भी करना था और उनके लिए उचित घने वनों को बना कर रखना था।

इसके अतिरिक्त वासुकि चंड-मुंड युद्ध में भी माँ जगदंबा की सेवा में भी उपस्तिथ थे और तक्षक वाणों के रूप में शत्रु की सेना का संहार करने में सहायक हुए थे।

“आप सभी को सूचित करना शुरू कीजिए, अभी समय है। देवी को मैं स्वयं सूचित करूँगा।“ महादेव थोड़ा गम्भीर होकर वासुकि को बोले।

“जो आज्ञा, प्रभु”

जैसे ही यह ख़बर नंदी को मिली तो वह ग़ुस्से में तमतमाता हुआ महादेव के पास आया।

“अब आपको मुझ पर विश्वास नही रहा। क्या मैं आपका हिस्सा नही हूँ, जो आपने अपने इस निर्णय में मुझे शामिल नही किया।

मुझे किसी अन्य से आपके प्रस्थान का समाचार क्यों पता चले? कैलाश की यात्रा की सवारी आप मुझ पर ही करेंगे या उसके लिए भी कोई और बैल देख लिया है।” कहते कहते नंदी की आँखे भर आयी।

“नंदी, कैसी बातें करते हो? आज अभी दो घड़ी पहले तो बात हुई है, वासुकि पास में थे तो उन्हें कह दिया।“ महादेव ने कुछ हैरानी से भौहें चढ़ा कर कहा

”और आज तक जितने युद्ध हुए, सब अवसरों पर आपकी ही सवारी की है। यहाँ तक की अपने विवाह पर कुबेर का रत्न जड़ित विमान छोड़ कर आपकी सवारी की। याद है, सभी देवता गण पहले पहुँच गये थे और हमारा पिशाच-भूतों का दल ४दिन देरी से पहुँचा था क्यों कि हमारी सवारी बहुत ही धीमे चल रही थी और आपकी वजह से हम रास्ता भी भटक गये थे।”

एक क्षण में ही नंदी का क्रोध शांत हो गया। नंदी को सारी भूली बातें याद आ गयी। उस समय कैसे महादेव ने उसकी नादानी को नज़रंदाज़ करते हुए, उसे देवतायों के कटाक्षों से बचाया था। अब नंदी को लग रहा था कि महादेव, भोलेबाबा तो थे लेकिन भूलेबाबा नही। उन्हें सब याद रहता था, समय पर सब पिछला दृश्य सामने ले आते थे।

“क्षमा कीजिए, प्रभु। मैं आपके जाने का समाचार सुन कर डर गया था। क्षमा कर दीजिए, मुझ से भूल हो गयी।”
नंदी महादेव के लाड़ले, हृदय से बहुत ही भोले और सत्यता में स्तिथ रहते थे। लेकिन अगर उनकी समझ में कोई बात नही आती थी तो वे उस बात को समझने की जगह अपना रौद्र रूप धारण कर लेते थे। सबसे मज़ेदार बात तब होती थी जब नंदी और महादेव की किसी विषय पर कोई बात-चित होती थी। महादेव को बार बार कहना पड़ता था कि नंदी फिर से बात को दोहराए क्यों कि शिव समझ ही नही पाते थे कि नंदी क्या कह रहे थे। और नंदी हर बात को दोहरा कर ही कहते थे। कितनी बार महादेव ऐसे समवाद से आनंदित हो बहुत हँसते भी थे।

और शिव को भी यही भाता था कि भक्तों की सारी प्रार्थनाए उन तक नंदी ही पहुँचाये।

(तभी तो आज तक सभी शिवालयों के बाहर नंदी विग्रह होता है और सभी भक्त अपनी प्रार्थना उन के कान में कह कर भगवान महादेव तक पहुँचते है।)

लेकिन भूत-पिशाच आदि सब नंदी की बात को बहुत जल्दी समझ भी जाते थे और शिव परमदूत मान कर आज्ञा का पालन भी करते थे। सभी गणों के प्रमुख नंदी थे। उन्होंने शिव के सानिध्य में रहने के लिए ही वरदान में सांड का स्वरूप धारण किया था और शिव भी केवल उन्हीं की सवारी करते थे।

वास्तव में अगर कोई भी सेवक क्रोध वश, महादेव से अपना रोष जताना चाहता होता तो पता नही महादेव क्या लीला करते या क्या उत्तर देते कि वही सेवक ३-४ पल में ही महादेव से बार बार क्षमा माँग रहा होता था। सभी का एक निजी सम्बंध था महादेव के साथ। महादेवी भी सभी निजी सेवकों को बहुत ही प्रेम करती थीं। और कभी कभी उन से महादेव के लिए शिकायतें भी सुन लेती थीं। इस प्रकार महादेव और महादेवी का एक विस्तृत परिवार था। 

जैसे ही महादेव के जाने की सूचना सारे सेवक दल को मिली, सब में एक शोक की लहर दौड़ गयी। क्यों कि पहले ही माँ की उपस्तिथि भी अनुपस्तिथि जैसी लग रही थी, कुछ भी सामान्य नही था। हर्षोंल्लास ख़त्म हो चुका था। अब भगवान महादेव भी नही होंगे तो जीवन जैसे एक अनाथ की भाँति हो जाएगा। कम से कम महादेव के दर्शन होने पर एक आशा थी कि जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा। और महादेव के उपस्तिथि में माँ सुरक्षित है।एक और आशंका सब के मन में थी कि शायद माँ स्वयं का मानसिक संतुलन खो चुकी है। थोड़ा सा भी अनुचित सोचने पर पुनः उनका काली स्वरूप जाग्रत हो सकता था।

इस से पहले महादेव माँ से अपनी जाने कि बार करते, सभी इक्कठे होकर महादेव के पास पहुँच गये।

“स्वामी, आप अभी मत जायिए, माँ अभी सहजता में नही है। अभी आप गये तो करोड़ों वर्षों तक लौट कर नही आयेंगे और हम असहाय हो जायेंगे।

माँ स्वस्थ हो जाए, आप कभी भी चले जाए। आपके सामने ही चिंतामणि गृह के प्रकृति क्रम की हालत है। कृपा कीजिए।” सभी ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की।

To be continued…

          सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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