आँधी आयी मेरी गालियों में

शमा जलाया था ईन हाथों से
काम्पते उंगलियों की कोशिश
ओझल होती हुई वो रोशनी को
उठाये उसकी गहराईयों से

हार चुकी थी वो जलते जलते
कह रही थी दीपक से…
हम तो बेरंग हुए चले
काली सी छाये घेरे मुझे…

बुझते अंगारों से…
दिया सुनाए अपनी दास्तान
नीव मेरी तुमसे है…
तुम हो तो डगर है

तुम नहीं तो तुम्हारी काली
सजे सबके अक्शों मे….
अस्तित्व तुम्हारी बनी रहे
तुम नहीं फिर भी तुम हो…

आँधी की वो क्रूरता की दौर
उंगलियों की वो अनगिनत कोशिश
बाती की वो जिंदगी की तलाश
दिया का अपना बेइंतहा समर्पण

हमसे कह गया
एहसास दिला गया
“तुम जली भी और जी भी ली”