मेरा शहर जबलपुर ना जाने कितने ही राज़ अपने सीने में दफ़न किये बैठा है सदियों से | यहाँ से कुछ दूर एक जगह है, त्रिशूल भेद | मैं कभी गयी नही हूँ वहाँ पर जब से सुना है, ना जाने क्यूँ वो जगह मुझे अपनी तरफ़ खींचती है | विरानों से लगाव या हिमालय की चाहत, ना जाने अपने किस मनो-भाव के वशीभूत होकर उस जगह से बंध- सी गयी हूँ | सुना है जहाँ सारी गालियाँ, सारे रास्ते खत्म हो जाते हैं और शहर का शोर पीछे छूट जाता है, वहीं कहीं सड़क के उस आखरी छोर पर एक मंदिर पड़ता है, काफ़ी पुराना, शिव का | शिव मुझे हमेशा ही अचंभित कर देते हैं| कैसी अद्भुत शक्ति है शिव! नंगे शरीर में भस्म की चादर ओढ कर ज़िंदगी का सच बता रहे हैं ना जाने कितने ही कालों से|
बहरहाल, मंदिर शिव का है वहाँ| मंदिर की चौखट पर मकड़ियों के धुंध-से जालें बाहें खोल कर दीवारों से लटके मिलेंगे| आप एक कदम अंदर की ओर लीजिये और वो आपको पूरी तरह अपने आगोश में समा लेंगे| मंदिर के गर्भगृह के अंदर रौशनी की परछाई भी नही पड़ती| पास में एक तलाब है, बिल्कुल ठहरा हुआ सा लगता है| ठीक जैसे समय ठहरा हुआ लगता है वहाँ | दूर- दूर तक फैला सर्फ सन्नाटा | खुद की साँसों की सरसराहट तक कानों को भेद जाती है और खमोशी में लिपटे हुए, उस ठहरे से एक पल में अपने वजूद पर मुझे यकीन होने लगता है|
जो जगह मेरी कल्पना में मुझे ऐसा महसूस कराती है, ना जाने यथार्थ की मिट्टी पर उसकी खूबसूरती कैसी होगी!
रहस्यों का शहर, मेरा जबलपुर !
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