मैं इस देह रूप में
तुम्हारे सामने
बैठ जाती हूँ
तो तुम्हें लगता है
कि मैं भी तुम्हारी ही तरह
इस देह के आधीन हूँ|
तुम्हारी ही तरह
इस देह की भावनायें
मेरे मन पर
हावी हो जाती होंगी |
तुम्हारी ही तरह मैं भी
राग-द्वेश-अहंकार
के हाथों की कठपुतली हूँ |
अगर तुम सच में
ऐसा सोचते हो,
तो ना तुमने खुद को जाना है,
और ना मुझे |
मैं परे हूँ तुम्हारी
कल्पनाओं से भी |
इस सृष्टि का आधार हूँ मैं,
और तुम भी |
ये जलन, पीड़ा, नफ़रत
इस देह से उपजी भावनायें हैं,
और हम…हम इस देह में होकर भी,
इस देह से परे हैं |
अखिल ब्रम्हान्ड में
व्याप्त है हम |
नक्षत्र और तारों की गति में,
हमारी ही ऊर्जा बह रही है |
प्रलय तुम्हारे एक इशारे
पर आश्रित है
और तुम क्षण-भर के
तूफ़ान से घबरा जाते हो!
इसलिये कहती हूँ,
मैं परे हूँ तुम्हारी कल्पना से|
मुझे नहीं समझ पाओगे तुम |
मैं ही इस ब्रह्मांड में व्याप्त
आदि पराशक्ति हूँ|
जिस शून्य की चाहत में
योगी कल्पों से तपस्या करते हैं,
मैं ही उस शून्य का केंद्र हूँ |
प्रकृति और पुरुष
मेरे ही विभाजित स्वरूप हैं |
और एक रूप में
वो मुझमे ही समा कर
निराकार हो जाते हैं |
साधना का सार और
समाधि का बीज मैं ही हूँ |
सृष्टि भी मुझसे है
और प्रलय भी |
बुद्ध मेरा था तो
तैमूर भी मुझ ही में है |
मैं ही वो रोशनी हूँ
जिसकी तलाश में
हर रूह भटकती है |
रात का काला अंधकार
भी मेरा ही अभिन्न अंग है |
ओंकार नाद मेरा ही स्वर है |
सृष्टि भी और सृष्टा भी मै,
मैं ही परब्रह्म हूँ…और तुम भी |