एक शायर अपने जज़्बातों, अपने एहसासों को अपनी कोख में पालता है और फिर माकूल वक़्त पर, बड़ी मशक्कत के साथ उन्हें चुनिंदा अल्फ़ाज़ों से ब्यान करता है. उन्हें गज़ल या नज़्म का रूप देता है.

गज़ल या नज़्म लिखने के बाद शायर को वही राहत, वही खुशी मिलती है जो एक गर्भवती औरत को प्रसव के बाद मिलती है.

आज मैं अपनी एक नज़्म पेश कर रहा हूँ. इसे मैंने कुछ समय पहले एक मुशायरे में गाया भी था. उम्मीद है आपको पसंद आएगी : 

सुन सबा सुनती जा,
इतना मुझको बता,
जिसे सब है पता,
पता उस का बता.

सुन सबा सुनती जा…

क्या वोह मग़रूर है,
फिर क्यों इतनी दूर है,
ना सुने वो फ़ुग़ाँ,
है छुपा वो कहाँ.

सुन सबा सुनती जा…

दी है उसने सज़ा,
उस से पूछूँ ज़रा,
क्या है मेरी ख़ता,
बता ऐ मेरे ख़ुदा.

क्या है मेरी ख़ता
बता ऐ मेरे ख़ुदा.

सुन सबा सुनती जा…

सबा : पूर्वी हवा, मग़रूर : अभिमानी, फ़ुग़ाँ : फ़रयाद,

~ संजय गार्गीश ~