मैं नदी के किनारे बैठ कर बहती धाराओं को देख रहा था| यादों में खोया , स्मृतियों की पूंछ पकड़ कर बस उसके पीछे उड़ा जा रहा ये मन अचानक,ठहर सा गया जब नदी के किनारे अठखेलियाँ करती छोटी -छोटी मछलियों की ओर मेरी निगाह गयी| इंसान भी कितना अजीब है ना,हर जगह अपनी आपबीती और बीती बातों की ही परछाई देखता है| चाहे वो खुशियों के पल हो या दुख के, हर जगह उसे अपनी बीती हुई बातों के प्रेत दिखते हैं या भविष्य के नीले आकाश में उड़ती इच्छाओं की परियां|लेकिन फिर भी उसे इन खूबसूरत नज़ारों को पीछे छोड़ बस बहना पड़ता है, आज नदी में बहता गया ,बहुत दूर तक जबकि मैं नदी किनारे पेड़ के नीचे ही बैठा था । लेकिन मेरा मन, चित्त नदी की शीतल ,शांत धाराओं के साथ एकरस हुआ उसी के साथ बहता गया दूर बहुत दूर …..। बहते – बहते मुझे नदी की सांसे सुनाई देने लगीं। उसकी धाराओं का प्रवाह मेरे नसों में प्रवाहित रुधिर के साथ एक हो गया अब मैं नदी था या नदी मुझ में पता नही , लेकिन फिर भी आंशिक नदी हो के मैं बहुत खुश था , इसका एक बहुत सीधा सा कारण है , क्यों कि मेरा अस्तित्व मेरे स्वार्थ और जरूरतों से ऊपर हो गया, मेरा होना दूसरों की सेवा का कारण बन गया| वाह… शायद इसीलिए नदी को ही सभ्यता का पालना कहा गया हैं | क्यों कि पालने का काम केवल और केवल मां करतीं हैं , और मां के शब्दकोश में मैं या मेरा शब्दों के कोई मायने ही नही हैं, इसीलिए शायद मैं नदी की धाराओं के साथ बहता गया |
क्या यही लगातार बहते रहने का नाम ही ज़िंदगी हैं,, लगातर बहते रहना किसी बड़े स्रोत के अस्तित्व में अपनी पहचान खो देना या फिर लंबी दूरी तय कर के सागर को गले लगाना और अपने विस्तृत स्वरूप को पाना| मुझे तो इंसानी जीवन और नदी में कोई फर्क ही नही दिखता दोनो की यात्रा कमोवेश एक जैसी ही हैं । दोनो को ही अपने पूर्ण स्वरूप को पाना है , कई बार दोनो को ही अपनी पहचान के खो जाने का भय रहता हैं| कभी-कभीं दोनो को ख़ुद से समझौता कर के किसी वृहद आकार के पीछे ख़ुद को खोना पड़ता हैं| लेकिन बहना तो पड़ता हैं, चाहे अपनी कूबत से या फिर किसी और का सहारा लेकर|
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