जब सभी ओर से मनुष्य हार जाता है। तभी एक सुगम रास्ता निकलता है और निराशा, आनंद में परिवर्तित हो जाती है। इसी को गुरु कृपा कहते है। विश्वास, ईश्वर में और भी अधिक दृढ़ हो जाता है और ईश्वर के साथ एक अटूट दिव्य सम्बंध बन जाता है।  

नंदी को महादेव ने शांत करके, कुछ आहार खाने के लिए भेज दिया।         

और एकांत में स्वयं को महादेव ने एक गहरी सोच में लम्बी साँस लेते हुए कहा, “कहाँ मैं मंगल अभिषेक के तुरंत बाद, तप और एकांत के लिए कैलाश पर जाना चाहता था और कहाँ अभी पहले देवी की इस लीला को विराम देना होगा, फिर जा पायूँगा।”

दूसरी तरफ़:-

माँ जगदंबा के ही महल के पास देवी वामकेशी को एक बहुत सुंदर छोटा सा महल उनके आवास के लिए प्रदान किया गया था। जिसकी खिड़कियाँ एक बड़े तालाब की ओर खुलती थीं। उसमें काले और लाल रंग के ही कमल खिले हुए थे। और उस तालाब को नेत्रों का आकार दिया गया था। ऐसा लगता था कि वो तालाब नही, माँ के विशाल नेत्र थे। तालाब के पास ही में आम के पेड़ों और भिन्न भिन्न प्रकार के विचित्र फूलों का उद्यान था। यहाँ का सूर्य उदय और अस्त होने का दृश्य बहुत ही सुंदर था। कभी कभी यहाँ पर महादेव और देवी माँ को चंद्रमा की रौशनी में विचरते देखा जा सकता था।

देवी वामकेशी सदैव मौन में रहती थी और हर क्षण उघान की ओर देखती रहती थी। सभी को लगता था कि उन्हें एकांत ज़्यादा प्रिय है। और कभी कभी माँ पार्वती, १५ नित्या देवी और अन्य दासियाँ उनका मनोरंजन करना चाहती या उन्हें उनके पिछले जीवन के बारे में कुछ याद करवाना चाहती तो देवी वामकेशी उन में घुल मिल ही नही पाती थी। सबको यही लगता कि देवी वामकेशी या तो अभी तक सदमे में है या बीते पलों को याद ही करना नही चाहती। जब कि देवी वामकेशी के लिए यह सब कुछ नया था। जिस क्षण महादेव ने उनका नामकरण किया था, उसी क्षण उन्हें ज्ञात हुआ था कि वह कोई और नहीं, बल्कि माँ जगदंबा की ही अंश थी। लेकिन वह मौन रही क्यों कि उन्हें यह ज्ञात नही था कि वो चिंतामणि गृह क्यों आयी थीं और किस कारण से उन का अवतरण हुआ था। विडम्बना यह थी कि उनका मन, हृदय और चित्त बिल्कुल विचारहीन और शून्य थे क्यों कि वह तो अभी अभी अपने एक नये अस्तित्व में आयी थीं। इस संसार की बातें और प्रचलन उनके लिए बिल्कुल नए थे।


जब भी उनसे आग्रह किया गया कि उनकी सेवा में कुछ दासियाँ या सखियाँ भिजवायीं जाए तो उन्होंने शालीनता पूर्वक इंकार कर दिया कि वो एकांत में रहना ज़्यादा पसंद करती थी। उन्हें अपनी सेवा में कोई नही चाहिए था। देवी वामकेशी सदैव बिना शृंगार के-आभूषण के, मुक्त केशी और बहुत ही सादे वस्त्रों में रहती थी।

उनमें कुछ परिवर्तन ना होते देख कर एक दिन माँ जगदंबा ने देवी वामकेशी के लिए कुछ वस्त्र और आभूषण भिजवाए, ताकि वो चिंतामणि गृह की कुलीन स्त्रियों की तरह ही दिखाई दें। दासियों ने देवी का द्वार खटखटाया और उनके प्रसाधन के लिए आज्ञा माँगी। माँ की आज्ञा का पालन करने के इलावा कोई और रास्ता नही था तो उन्होंने दासियों को अपनी सेवा करने की आज्ञा दे दी। दासियों ने उन्हें केसर के जल से उनका स्नान करवाया। उनके सुंदर केशों को आंबला और भृगराज के उबटन से धोया गया।

आज जीवन का पहला अवसर था, जब उन्हें इस प्रकार की स्नान की सेवा अर्पित की गयी हो। फिर उन्हें नए वस्त्र पहनाये गए। जैसे जैसे उनका शृंगार हो रहा था, ऐसे लग रहा था जैसे कि उनका एक एक अंग खिल रहा था, मानो बोल रहा था। नरगिस के फूलों से बने इत्र को अर्पण करने के बाद उनकी शृंगार सेवा को विराम दिया गया। इत्र की सुगंध से देवी के नेत्र आनंद से विभोर हो गए।

जब उन्हें दर्पण दिखाया गया तो स्वयं के स्वरूप को ही देख कर आश्चर्य चकित हो गयी क्यों कि इस से पहले उन्होंने अपने पर कभी ध्यान ही नही दिया था और ना ही उन्हें पता था कि शृंगार कैसे किया जाता था? वह बार बार स्वयं को देख कर रोमांचित हो रही थी। उनके बड़े बड़े नेत्र जिन में आज पहली बार काजल लगा था, बहुत ही आकर्षित लग रहे थे। भिन्न भिन्न आभूषण जिन्हें कैसे धारण करते है, उन्हें यह भी नही पता था। लेकिन इन आभूषणों को पहन कर वह किसी महाराज्ञनी से कम नही लग रही थीं। स्वयं को दर्पण में देख कर उनके चेहरे पर एक स्वाभाविक मुस्कुराहट आ गयी।

दासियाँ खुद पर गर्व कर रही थी कि उनके द्वारा की गयी शृंगार सेवा ने देवी वाम केशी के सौंदर्य को किस शिखर तक पहुँचा दिया, जब कि उनका ऐसा सोचना, मात्र एक भ्रम था। माँ जगदंबा के अंश को केवल एक आरम्भिक मार्ग देने के लिए और इस संसार के परिचय के लिए यह एक पहला कदम था।

फिर दासियों ने देवी वामकेशी को बताया कि आज रात्रि के भोज में उनकी उपस्तिथि अनिवार्य है। उन्हें, माँ जगदंबा, महादेव और अन्य परिवार जनों के संग भोजन करने के लिए आमंत्रित किया गया था। अन्यथा देवी वाम केशी अपने ही कक्ष में केवल फीके दूध का भोग लगाती थी। बहुत बार आग्रह करने पर भी वो आज तक रसोई घर में भी नही गयी थी और ना ही किसी भोज को ग्रहण किया था।

देवी वाम केशी, दासियों सहित मुख्य रसोई घर की तरफ़ प्रस्थान कर रही थी। उनके रूप के सौंदर्य को देख कर जो जहां था, वहीं ठहर गया या वहीं नतमस्तक हो गया। देवी वाम केशी को यह सब बहुत ही अजीब लेकिन अच्छा लग रहा था। ऐसा विशिष्ट सम्मान उन्हें पहली बार प्राप्त हुआ था। देवी वामकेशी के लिए यह परिवर्तन कितना ही सुखद था। उनका स्वयं के साथ एक नया परिचय हो रहा था। 

जैसे ही देवी वामकेशी ने रसोई घर में प्रविष्ट किया तो देवी को देख कर सभी के नेत्र आश्चर्य से फैल गये।

माँ जगदंबा ने देवी वामकेशी को गले लगाया कर उनका स्वागत किया। देवी वामकेशी ने दोनो कर जोड़ कर, माँ और महादेव को झुक कर प्रणाम अर्पित किया। देवी वामकेशी को झुका देख कर मौन महादेव ने मुस्कुराते हुए ‘आशीर्वाद’ कहते हुए, हल्का सा शीश झुका कर उनकी प्रणाम को स्वीकार किया। लेकिन जैसे ही महादेव ने देवी वाम केशी को देखा तो उनके नेत्र कुछ क्षण के लिए वही ठहर गए जैसे कि महादेव कुछ सोच रहे थे।

महादेव को ऐसे स्थिर दृष्टि के साथ देख कर देवी वामकेशी थोड़ा सतर्क हो गयी। उन्हें लगा या तो उनके शृंगार में कहीं त्रुटि थी या महादेव उनको निहार रहे थे। जब कि यह दोनो कारण नही थे। महादेव केवल यह सोच रहे थे कि सभी को यह सत्य कब बताया जाए कि देवी वामकेशी, माँ जगदंबा का ही अंश थी। १५ नित्या देवी, देवी वामकेशी, गणेश, कार्तिक, माँ जगदंबा और महादेव सभी के आसन गोलाकार आकृति में लगे हुए थे। आज की मुख्य अतिथि होने के नाते देवी वामकेशी का आसन महादेव के निकट लगाया गया था।

रसोई घर में ही भीतर के एक कक्ष में, कुशल रसोईयों का एक दल भाँति भाँति के पकवान बना रहे थे। पक रहे व्यजनों की सुगंध से देवी वामकेशी बहुत ही प्रसन्न और प्रभावित हुई। और सोच रही थी कि चिंतामणि गृह में कितने विचित्र और खुशहाल प्रचलन है। जैसे ही उनकी थाली में पहला व्यंजन परोसा गया तो…

To be continued…

           सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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