अपने पिता को ज़िंदगी की मुश्किलों के सामने घुटने टेकते देख,अपनी असहाय भूमिका पर व्याकुल हूं।
मेरे जीवन के सूर्य रूपी पिता वित्तीय समस्याओं के ग्रहण का शिकार हो कर अब अस्त होना चाहते हैं।
किसी का जन्म लेना और मृत्यु को पाना प्रकृति का हिस्सा है, परंतु समय से पूर्व ज़िंदगी के मैदान मे यूं हार मान जाना मुझ जैसे बेटे के हृदय पर भार है।
11 अगस्त 2015 को लकवे के मरीज होने से पहले दिन भर सैकड़ों लोगों से मिलने वाले के जीवन के पहिये जाम हो गए।
वह चाहकर भी उस गति से न चल सकते जिसके वे आदतन हैं। हर फिक्र को यूं ही हंसी में उड़ा देने वाले महान व्यक्तित्व को लकवे ने जड़ कर दिया है।
मेरे जीवन के इस सूर्य को मैं अपनी आंखों के सामने अस्त होते देख रहा हूं ।
मेरे देरी से किये गए प्रयासों और उनका कहना कि ” क्या बरखा जब कृषि सुखानी” यानी जब समय निकल गया फिर किसी भी प्रयास का क्या अर्थ। ये बात सटीक समझ आने लगी है।
मेरी हिम्मत और साहस की मिसाल मेरे पिता अब खुद के लिए अस्पताल में मृत्यु को ही बेहतर विकल्प मानते हैं।
मेरे इतने शिक्षित होने के बाद भी मैं उन्हें जीवन जीने की उम्मीद नही दिखा पा रहा।
अब सोचता हूँ कि एक बेटे के लिए, पिता क्या-क्या नही करता। पर क्या एक बेटा भी पिता के लिए उतना कर पाता है ? अपने कंधों पर सारी दुनिया दिखाने वाला पिता 1 दिन बोझिल हो कर दुनिया से विदाई मांगता है । यह बेहद दर्द भरा है । मैं सोचता हूं कि यदि किसी दुर्घटना में,
मैं लकवे का मरीज हो गया होता या की डिसेबल हो गया होता तो क्या मेरे पिता बिना किसी देर के मेरा दुनिया का सबसे अच्छा इलाज नहीं करवाते और यदि वह ऐसा करते तो फिर एक बेटा होने के नाते मैंने क्यों उनका इलाज उस स्तर का नहीं करवा पाया। जिसके चलते वह फिर से अपने पैरों पर खड़े हो पाते हैं । एक बाप अपनी जिंदगी की सारी कमाई अपने बच्चे को पैरों पर खड़ा करने में लगा देता है। वही बच्चे जब 55 साल के वृद्ध पिता को बैसाखी या ट्राई साइकिल पर छोड़ते हैं, तो देखकर सुनकर समझ कर आत्मीय कष्ट होता है । मैं उन्हीं दुर्भाग्यशाली बेटों में से हूं जिसने अपने पिता को अपनी आंखों के सामने लाचार होते देखा है । जो जन्म से दिव्यांग होते हैं उनका दर्द किसी से कम नहीं परंतु 55 साल तक एक चलता फिरता घूमता व्यक्ति अचानक से 1 दिन रुक जाता है और रुक कर ही रह जाता है ।परिस्थितियां इस कदर बिगड़ती है कि चिड़चिड़ापन और तनाव में हार्ट अटैक का शिकार हो जाता है और तब भी उसे वह सहानुभूति और इलाज नहीं मिल पाता जिसका वह हकदार है।इन सब का कारण पारिवारिक आर्थिक तंगी और असंवेदनशील रिश्ते होते हैं । पहले से ही शारीरिक सजा को भोग रहे व्यक्ति को इस तरह छोड़ देना न्यायोचित नहीं है। मैं चाहता हूं की ईश्वर मुझे और हम सब को सद्बुद्धि व सामर्थ्य दें की हम अपने लोगों की समय पर सेवा कर सकें। जिंदगी की भागदौड़ में हम कल आने वाली खुशियों के लिए अपना और अपनों के वर्तमान को अनदेखा न करें।
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