पेड़ से टूटी टहनी,
गिरी जा के औंधे मुंह।
पास खड़े झाड़ ने कहा, “चल तू मुक्त हुई अब”,
अब तो तू भी जहां चाहे फैल सकेगी मेरी तरह स्वच्छंद , स्वतंत्र।
किंकर्तव्यविमूढ़ , टहनी है अकुलाई,
पास खड़ा है उसका रचनाकार।
अफ़सोस!
है कितनी अभागन वह टहनी,
अलग होना चाहती थी संसार को देखने हेतु,
अब है दुविधा अथाह!
रोये, शोक मनाए, या फिर आगे बढ़े?
आगे भी बढ़े कैसे?
पोषक तो पीछे छूटा।
पोषण मिले कैसे?….कहां से?
झाड़ी ने मखौल उड़ाया पेड़ का,
वृक्षराज आप है क्यों द्रवित?
अधीर क्यों है? है असंख्य टहनी आज भी कलेवर में आपके।
वृक्षराज गंभीर हो कहा कुछ मौन स्वर से,
टूटे पत्ती, टहनी, या शाखा मुझसे ,
क्यों न हो संताप..? ,है तो सभी ये मेरे ही उत्पाद।
मेरी छांव में टिकता मुसाफ़िर ,घरी ,पहर,
छाती में हैं करते खग अथाह दुलार,
कैसे देखूं मेरे नीचे मरता मेरा लघु संसार?
पेड़ से टूटे टहनी या डाल,
कष्ट होता दोनों को ही अपार।
झाड़ है ख़ामोश, है ख़ामोश टूटी टहनी,
वृक्षराज भी हैं चुपचाप, देखते ये माया का संसार।
है सभी कुछ ही नश्वर यहां,
यही है प्रकृति का आधार,
“अनित्य” ही नित्य है,
शाश्वत ,परम् एकाकार
#समर्पित प्रकृति
😊 जय श्री हरि
स्वामी कृपा करें💐💐
Comments & Discussion
8 COMMENTS
Please login to read members' comments and participate in the discussion.