बूढ़ी काकी

क्या होता है जब समाज आपको ठुकरा देता है ? क्या होता है जब जीवन की शाम अकेलेपन का सामना करती है ? क्या होता है जब अँधेरा दिल में बस जाता है , क्यूंकि उसे उज्वलित करने वाला कोई नहीं होता ? क्या बिना किसी के साथ के, मृत्यु इनायत से हो सकती है ? या वो फिर भूत बनकर किसी के तकिये के ऊपर भटकती रहती है ?

बूढी काकी एक शांतिमय मौत की प्रार्थना करती थी। मृत्यु के वक्त भी वो भगवान का नाम-स्मरण करती रहे, ये ही उसकी एक मात्रा अभिलाषा थी।

उसका न कोई घर-भार था , न कोई बाल-बच्चे। एक लड़का था जो  बाल्यावस्था में ही स्वर्ग सिधार गया और उसके पति आयु -वश चल बसे।

समय और कष्ट ने उसे अकेले रहने पे मजबूर कर दिया था पर पैसे की तंगी नहीं थी। पति सरकारी नौकर थे ,वहीं से पेंशन का मासिक पैसा आता था।

उसका छोटा सा घर, दो कमरे संजोये हुए था। दो कमरे भी उस अकेली के लिए बहुत ज्यादा थे , क्यूंकि उसे तो बस एक बिस्तर ,एक चूल्हा , और ईशान कोण में अपने प्रभु के लिए एक कोना ही चाहिए था।

भोर से शाम तक उसका मन ध्यान और अपने परमात्मा के नाम-स्मरण में मग्न रहता था या वो भगवत पुराण , रामायण आदि उठाके पढ़ने लगती । वे कभी भजन -गीत गाने लगती तो उसकी आँखों से प्रभु-प्रेम के अश्रु बहने लगते। फिर खुदके लिए भोजन बनाने में,साफ़-सफाई ,अदि में उसका समय व्यतीत हो जाता।

उसे आस -पड़ोस में कोई नहीं पूछता था क्यूंकि वो दलित -समाज से थी और सब उसे भोज समझते थे क्यूंकि वो बुढ़िया थी।

एक बार वो बिमार पढ़ गयी तो पड़ोसिओं को उसे अस्पताल ले जाना पढ़ा। उनका पैसा लगा। उन्हें कष्ट हुआ। काकी ने उनका पैसा लौटा दिया पर उस पर एक भोज होने का दाग हमेशा के लिए लग गया।

उसके ठीक पड़ोस में गुड़िया और उसका परिवार रहता था। एक वक्त था, जब उसने उनकी मुश्किल घड़ी में, उन्हें दस हज़ार रूपये नकद उधार दिया था।  पर फिर भी, वो भी उसे तिरछी नज़र से देखते थे। वह ये जानती थी पर फिर भी उसने गुड़िया के साथ रिश्ते बनाये रखे। वह सब समझती थी पर कहती कुछ न थी। कहती सिर्फ उस प्रभु से थी, जो सबका पालनहार है। वो सुन रहा है या नहीं ,वो अलग बात है।

एक दिन काकी, हर दिन की तरह भगवद कथा पढ़ रही थी पर आज उसे उसमे रस नहीं आ रहा था। आज उसके अंदर अखबार पढ़ने की इच्छा उत्पन्न हो रही थी। काफी अरसे से उसने अखबार को हाथ तक नहीं लगाया था।  दुनिया में क्या हो रहा है इससे वो बिलकुल अनजान थी। तो वो उठी , और गुड़िया के घर का दरवाज़ा खटखटाके गुड़िया को पुकारने लगी।

“ऐ गुड़िया ! गुड़िया ! गुड़िया सुनती है ?”

गुड़िया आवाज़ सुनकर बाहर आई और कही ,”क्या हुआ काकी ? इस भरी दोपहर में कैसे आना हुआ ?”

” गुड़िया मुझे आज का अखबार देदे।  समय नहीं कट रहा तो सोची की आज अख़बार पढ़ती हूँ।”

गुड़िया ने मन में सोचा की बुढ़िया एक अखबार के लिए भी उसे परेशान कर रही है।  पास वाली दूकान से एक अख़बार भी नहीं खरीद सकती , और भरी दोपहर में, जब सब सो रहे होते हैं ये जगे रहती है, और सबको परेशान करती है।  पर उसके मुँह से निकला ,”अभी लायी काकी। देखती हूँ कहीं पड़ा होगा। “

अख़बार लेके जब वो आई तो उसने काकी से कहा ,”ये लो काकी अखबार। तुम अभी ले जा लो। पर लौटा देना। अभी पतिदेव ने  पूरा पढ़ा नहीं है।  अभी वो सो रहे हैं। तुम्हे तो पता ही है हम दोपहर में सोते हैं। “

“अरे गुड़िया बेटी माफ़ करियो। मेरी खोपड़ी घूम जाती है। अक्ल में ही न आया की तुम सो रहे होगे और मैं तुम्हे  परेशान न करूं।”

“कोई बात नहीं चलो। तुम पढ़लो। कुछ देर में लौटा देना।”

“ठीक है’”, कहके काकी वापस घर आ गयी। उसने अख़बार खोला और पढ़ने लगी।  पढ़ा तो क्या देखती है गुजरात के गोधरा में एक ट्रैन को आग लगा दिया गया जिसमे सैकड़ों हिंदू तीर्थयात्री सफर कर रहे थे।

इस घटना के कारण , गुजरात के हिन्दू और मुसलमानों के बीच दंगा छिड़ गया है और हज़ारों लोग मारे जा रहे हैं। पहली पन्ने के शीर्षक से लेकर दूसरे ,तीसरे ,चौथे और कुछ अन्य पन्नों में भी ये ही एक मुख्य खबर बनके सामने आ रही थी।

इन् दंगों में कुछ लोग ज़ख़्मी थे ,कुछ गुमशुदा थे, और कुछ मारे जा चुके थे। सरकार भी इन दंगों पे काबू नहीं पा पा रही थी। कुछ का कहना था की मोदी सरकार जानबूछ कर कुछ नहीं कर रही है। इसका सच क्या है ये किसी को नहीं पता था।

इन दंगों के बीच ,एक पच्चीस साल के मुसलमान युवक इमरान को पाँच -छेह लोगों ने मिलकर बहुत पीटा, क्यूंकि उन्हें सुनने में आ गया  था की उसका किसी हिन्दू लड़की के साथ प्रेम-सम्बन्ध है। वो लोग इमरान को बुरी तरह घायल कर रास्ते में इस चेतावनी के साथ छोड़ गए. की वो हिन्दुओं की बेटिओं से दूर रहे वरना अंजाम अच्छा न होगा।

कुछ दिन बाद, इमरान अपनी प्रेमिका नेहा के साथ वहां से भाग कर दिल्ली आ गया। वे अब शादीशुदा थे।

*

शहर में रहने के लिए किराए का कमरा ढूंढते-ढूंढते इमरान और नेहा काकी के घर पहुंचे।

“नाम क्या है तुम्हारा ?”, काकी ने पुछा।

“जी, मेरा नाम इमरान है। और ये है मेरी बेगम नेहा।”

काकी ने पूछा।, “तुम मुसलमान हो ?”

“जी।  मैं मुस्लमान हूँ , पर ये  हिन्दू हैं”, इमरान ने नेहा की तरफ इशारा करते हुए कहा।

काकी ने अनायास ही पुछा ,”घर वाले तुम्हारी शादी को लेकर राज़ी थे ?”

नेहा ने मासूमियत से कहा ,”जी, वो नहीं माने। हम इसीलिए यहाँ आये हैं। आपको भी कोई ऐतराज़ हो तो हम चले जाते हैं।”

काकी ने थोड़ा सोचा। उसने खुद जीवन-भर दलित होने के कारण, जाति-भेदभाव का सामना किया था।  पढ़ी -लिखी नहीं थी पर इसकी समझ उसे भी थी की इंसान -इंसान में मज़हब ,जात, पंथ, आदि को लेकर भेदभाव नहीं करना चाहिये।

काकी को मन -ही -मन उनपर दया आई पर फिर भी एक मकान -मालिक के नाते उसने उनसे कुछ और ज़रूरी सवाल-जवाब किये।

“मुझे कोई ऐतराज़ नहीं है पर तुम ये बताओ कहाँ के रहने वाले हो तुम दोनों ?”

इमरान ने कहा, “जी हम गुजरात के वड़ोदरा से आये हैं।”

“और काम क्या करते हो ?”

“जी वहाँ पर तो मैं एक बिस्कुट फैक्ट्री में काम करता था। अब यहाँ पर नौकरी ढूंढ रहा हूँ। कुछ जगह बात की है, जल्द मिल जाएगी।”

“महीने का भाड़ा दे पाओगे न ? पंद्रह सौ रूपये है।” काकी ने गंभीर स्वर में कहा।

“उसकी आप चिंता न करें। हम आपको सूत -समय हर महीने किराया दे देंगे।”

“ठीक है। तो कब आ रहे हो अपना सामान लेके ?”

“हम कल आते हैं। “

“अभी कहाँ रह रहे हो?”,काकी ने पुछा।

“आपसे क्या छुपाएं, अभी तो हमने चार दिनों से बसअड्डे को ही अपना घर बना रखा है। अब आप मिल गयी हैं। अब सब ठीक हो जाएगा। परसों से नौकरी भी शुरू कर रहा हूँ। “

“ठीक है। तुम दोनों आ जाओ। मेरे घर में तुम्हारा स्वागत है। बस एक शर्त है। प्यार से रहना।”

“जी बिलकुल। आपको शिकायत का मौका न देंगे। “, नेहा ने कहा।  इमरान ने सिर हिलाकर सहमति दी।

*

दोनों को काकी के घर आये हुए कुछ समय हो गया था। इमरान की नौकरी लग गयी थी। वो वह रोज फैक्ट्री जाता था और नेहा घर के कामों में व्यस्त रहती थी। किराया भी सूत -समय पे दी दिया जा रहा था।

नेहा चुलबुली और स्वतंत्र लड़की थी। उसे कैसी भी परिस्तिथि में खुद खुश रहना और दूसरों को खुश रखना आता था। काकी को ये देख बहुत अच्छा लगता।

नेहा काकी को “अम्मा” बुलाती। कहती, “अम्मा आप में मुझे मेरी आई और दादी दोनों दिखतीं हैं। मैंने दोनों को कभी नहीं देखा।” नेहा फिर कहती है ,”और आप अपना खाना खुद मत बनाया करो।  अब से मै आपके लिए खाना बनाउंगी और हम सब साथ खाया करेंगे।”

यह सुन, काकी की आँखों में आसूं आ जाते हैं। कहती है ,”तू कितनी प्यारी है रि नेहा। तू जैसे मुझसे बात करती है वैसा मुझसे कभी कोई नहीं करता । तू कितनी सेवा कर रही है मेरी। मैं धन्य हूँ बेटी की तू मेरे घर आई।”

पर काकी हमेशा यूहीं प्यार से नहीं बोलती थी। कभी-कभी, कुछ उम्र का तकाज़ा होता होगा की नेहा को झड़प देती। पर नेहा बुरा न मानती। उसे वास्तव में , काकी में, अपनी आई और दादी दिखती थीं।

एक बार काकी ने नेहा को दूध और थोड़ा अरहर की दाल लेने बाज़ार भेजा तो अचानक वो नेहा पे भौक्ला गयी।

“क्यों रि छोरी ! हड़प ले गयी तू मेरा पैसा?”

“अरे नहीं अम्मा ,मैं क्यों तुम्हारे पैसे चुराऊँगी।”, नेहा ने कहा।

“तो मेरे पैसे कहाँ हैं ?”, काकी ने पुछा।

“कौन से पैसे अम्मा ?”, नेहा ने  स्नेहशील स्वर में पुछा। फिर आगे कहा, “आप अरहर और दूध लाने को बोली थी याद है ? फिर मैंने आपको पाँच रूपये वापस करे थे। याद करो। “

“हाँ -हाँ।  याद आ गया। तू मेरा बुरा मत मानना। पता नहीं क्या बताऊँ खोपड़ी घूम जाती है अब तो। कुछ याद नहीं रहता।”

“बुरा नहीं मान रही अम्मा चिंता मत करो।”

नेहा जब उसके पैर दबती या मालिश करती तो काकी उसे अध् -खुली आँखों से देखती और मन-ही-मन सोचने लगती की जवान होना कैसा हुआ करता था; एक मजबूत पतला शरीर होना कैसा होता है, जो वो सब कर सके जो वो करना चाहे। अब तो जोड़ों में दर्द रहता है , पैर साथ नहीं देते, और पाचन भी सही से नहीं हो पाता। नेहा को देख मानों उसे अपनी जवानी की परछाई दिखती। वो कैसी हुआ करती थी। चुलबुली और  स्वतन्त्र ! कैसे वो भी खुश रहा करती थी और कैसे वो पारिवारिक सिद्धांतों और व्यक्तिगत मूल्यों को महत्व देती थी। 

यही सब सोचते-सोचते, काकी के मन में प्रश्न आया की क्या नेहा का घर से भाग कर शादी करना उचित था ? उसके घर वाले चिंतित रहते होंगे। तो उसने उससे और इमरान से ये सवाल किया।

नेहा बोली ,” हाँ अम्मा।  मैं मानती हूँ मैंने सही किया। मेरे पिताजी को कभी हमारे लिए समय न था। उन्हें दारू पीने से फुर्सत मिले तब तो कुछ हो न।  मैं तब तक उनसे न मिलूंगी जब तक वो सुधरेंगे नहीं और इमरान को अपनाएंगे नहीं। और मेरा बड़ा भाई भी इसमें मेरा साथ देता है। उसे कोई ऐतराज़ नहीं है। वो जानता है इमरान अच्छा आदमी है। कोई भी भाई अपनी बहन के लिए अच्छा लड़का ही चाहता है।”

इमरान ने एकाएक हामी भरते हुए कहा ,”मैं भी तब ही घर वापस जाऊंगा जब वो नेहा को अपना लेंगे। वर्ना हम दोनों जैसे हैं खुश हैं।”

“हाँ और अम्मा घर में बड़े हों तो अच्छा होता है तो हमारे घर में आप बड़ी हैं। आपने हमें स्वीकारा। आप हमारे लिए सब कुछ हैं। आपकी सेवा करना हमारा अधिकार भी है और कर्त्तव्य भी।”

काकी को ये सुनकर बहुत अच्छा लगा और वो भावुक हो गयी। उन दोनों को देखकर उसे अपने पति के साथ बिताये पल याद आते। कैसी उनकी बहुत छोटी उम्र में शादी कर दी गयी थी। कैसे दोनों ने अपना गुज़ारा करा। कैसे उनके बेटे की मौत ने उन्हें एक -दूसरे के और करीब ला दिया। कैसे उनका प्रेम समय के साथ कम न हुआ पर और गहरा होता गया। और कैसे पति की मृत्यु के बाद काकी अकेली हो गयी और समाज ने उसे धिक्कार दिया। पर नेहा के आने के बाद उसकी भुजती ज्योति में एक नयी उमंग जग गयी। अब वो अकेला महसूस नहीं करती थी। उसे नेहा में अपनी पोती दिखती।

*

नेहा और काकी दोनों शाम को बाज़ार जाते थे। नेहा की आदत थी कि वो पूरा सझ-धज के बाहर निकलती थी। एक दिन उसने काकी को कहा ,” चलो अम्मा आज काली माँ के मंदिर जा रहे हैं। कुछ अच्छा सा पहन लो।”

“ठीक है बेटी। पर मेरे पास तो पहनने को कुछ भी अच्छा नहीं है। अब तो अरसा हो गया है कुछ अच्छा पहने हुए।”

ये सुनके नेहा तुरंत अपने कमरे में गयी और एक साड़ी लेकर बाहर आयी। “अम्मा ये डाल लो। देखो तो कैसा लगता है। और कोई अच्छा सा ब्लाउज पहन लो।”

काकी ने साड़ी पहनी और नेहा ने अच्छे से क्रीम वगैरह लगाकर काकी को तैयार किया। खुद को सजी-धजी देख काकी की आँखें नम हो गयी। जबसे उसकी उम्र हो आयी है , उसने कभी खुदका श्रृंगार न किया था। आज पंद्रह बरस बाद वो फिर सजी।

दोनो काली मंदिर गए और वहाँ से प्रसाद लेकर आये। जब इमरान वापस आया तो नेहा ने उसे प्रसाद दिया। उसने आदर के साथ प्रसाद खा लिया। सुबह-सुबह  इमरान अपनी  नमाज़ पड़ता था और दूसरी ओर नेहा भगवान् की पूजा करती।  काकी दोनों के बीच प्रेम और समझ देख कर खुश होती थी।

और ऐसे ही महीने बीतते गए , कुछ साल बीत गए। नेहा और इमरान वहीं काकी के साथ उसके मकान में एक साथ रहते रहे। तीनो एक दुसरे का अवियोज्य अंश  बन गए थे। फिर एक चौथा अंश और आ गया (गयी)। नेहा और इमरान की एक बेटी हुई।

अम्मा और नेहा दिन -भर उस नवजात शिशु की देखभाल में लगे रहते। और काकी ने नेहा की बच्ची को अपने प्यार का इजहार कर सकने का एक माध्यम देखा। वो प्यार जो कहीं खो गया था। जब बच्ची सो जाती तब नेहा काकी की सेवा में खुधको व्यस्त कर लेती। काकी के दिल के सारे द्वार नेहा और उसके परिवार ने खोल दिए थे।

एक दिन काकी ने बात छेड़ी ,”नेहा तू मेरी सबसे सगी है। मेरी पोती है। ये घर तेरा है। मेरे मरने के बाद भी ये घर तेरा ही रहेगा। तू मेरे घर की वारिस है। अब तेरी छोटी बच्ची भी है इसको लेकर कहाँ जाओगे। “

“अम्मा आपने मुझे अपना माना उसका मैं शुक्रिया कैसे अदा करूँ पर ऐसा मत कहो।  मैं ऐसा नहीं होने दे सकती। “

“क्यों तू मुझे अपने नहीं मानती ?”

“मानती हूँ अम्मा , मैं आपको अपना मानती हूँ। पर आपके परिवार वाले इस फैसले से खुश नहीं होंगे।”

“उसकी चिंता तू मत कर।  तू जानती है मेरे परिवार में कोई नहीं है। एक भतीजा है जिसे मुझसे कोई मतलब नहीं हैं। उसे सिर्फ मेरी ज़मीन-जायदाद से मतलब है जो मैं उसे न दूंगी। मैं जल्द ही अपनी वसीहत लिखवाउंगी जिसमे तेरा नाम होगा। “

नेहा के आँख से आसूं बहने लगते हैं। “अम्मा तुम मुझे इतना प्रेम करती हो ?”

“हाँ बेटी। तू मेरी अपनी ही तो है काहे प्रेम न करुँगी। मुझे मेरे पति के आलावा किसी ने इतना प्यार,सम्मान नहीं दिया जितना तूने दिया। समाज में दलित होने के कारण इज्जत न मिली। इस बूढी को तुझे छोड़ सबने भोज समझा। परिवार में अब कोई है नहीं पर तूने मुझे अपना माना। इसिलये मेरी तरफ से तुझे ये तौफा है। ये ज़मीन तेरी है। अब तुमको दर-बदर  घर के नाम पे भटकना न पड़ेगा।  ये मेरा वादा है।”

ये सुन नेहा और भावुक हो गयी और तुरंत काकी के पैर छूके फिर उसे गले लगा लिया। उन दोनों के बीच आपसी विश्वास, प्रेम, करुणा और दया की सुंदर अग्नि प्रस्फुटित हो रही थी। उनका रिश्ता ख़ून से नहीं था पर, ख़ून से बड़ा था।