कितना सोचती हूँ कि माँ से संसार माँगुंगी, प्रेम माँगुंगी, स्वास्थ, कीर्ति, धन माँगुंगी | प्रार्थनायें खाली नहीं जाती | पर जैसे ही माँगने जाती हूँ, अपने सामने मृत्यु पाती हूँ | धू-धू कर जलती चिता, गंगा के घाटों पर घूमता चान्डाल, जीवन के माथे पर महामाया का तांडव दिखने लगता है| सब राख बन जाता है | प्रलयकारी तूफ़ान में सब बह जाता दिखता है | बज्रपात दिखता है | और उस तूफ़ान में दिखता है मेरी माँ का विश्व मुग्ध करने वाला ब्रह्मरूप !
विध्वन्स के इस नंगे नाच के ठीक बीचो-बीच धीरे से नन्हे फूल अंगराई लेते हैं | मृत्यु की तबाही के बीच कौन इनमे प्राण फूँक रहा है? जिसे मनुष्य विध्वन्स कहता है, उसी के सीने पर सृजन होता है! विध्वन्स तो साक्षात प्रकृति है फिर- सृष्टि-रूपा चैतन्य शक्ति|
क्या यही है ब्रह्म- ज्ञान? सृजन और विनाश एक ही हैं?
जिसके आँखो पर डर का पर्दा, वह विनाश देखता है | जो डर के ना देखे, उसे सृष्टि दिखती है | फिर क्या सृजन और विध्वन्स दोनो ही असल में उस त्रिपुर-सुंदरी का छद्म वेश है?
संसार, प्रेम, धन चाहने जाती हूँ और माँग बैठती हूँ ध्यान, वैराग्य, त्याग, ज्ञान| कौन सी माया है यह उस भुवनेश्वरी की?!