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गतांक से आगे….

नरसिंहरामजी! हमलोग परदेशी यात्री हैं। जूनागढ़से द्वारिकापुरीका मार्ग विकट होनेके कारण द्रव्य लेकर चलना हमें अनुचित और भयावह प्रतीत होता है। अतएव ये सात सौ रुपये लेकर यदि आप द्वारिकाकी हुण्डी लिख दें तो बड़ी कृपा होगी।’ एकने नम्रतापूर्वक कहा ।

नरसिंह मेहता जी बोले:- 

‘हरिजनो! मेरा घर आप लोगोंको किसने बताया ?’ भक्तराजने हँसते हुए पूछा ।

भक्तराज! यहीं पासमें एक चौरेपर कुछ भले आदमी बैठे थे, उन्हीं लोगोंने आपका परिचय देकर विश्वास दिलाया है कि यहाँ द्वारिकाकी हुण्डी मिल जायगी ।’ एक यात्रीने उत्तर दिया ।

यह सुनकर भक्तराजको अपने जाति – भाइयोंकी करतूतपर हँसी आ गयी। सज्जन पुरुष दुर्जनोंके अनुचित कार्योंसे भी घबड़ाते नहीं, बल्कि उन्हें भी उपयोगी समझकर सन्तोष मानते हैं, महासागरके खारे जलको अमृत बनाकर मेघमण्डल जगत् को जीवन प्रदान करता है।

भक्तराजने सोचा कि इस अनायास उपस्थित संयोगमें अवश्य ही ईश्वरीय संकेत होना चाहिये, अन्यथा यह असम्भव कार्य सम्भव कैसे होता? कलसे ही तो पत्नीके एकादशाह- द्वादशाहके निमित्त जातिभोजन कराना है। इसी कार्यके लिये इस रूपमें भगवान्ने सहायता भेजी होगी, नहीं तो इन यात्रियोंका और मेरा यह संयोग ही कैसे बनता ।

समय विचारकर कार्य करनेवाला ही मनुष्य सावधान कहा जाता है। अतः हुण्डी लिखनेमें विलम्ब करना उचित नहीं।

परमात्माकी इच्छाके अनुसार यह सुयोग उपस्थित हुआ है और मेरी हुण्डी वह द्वारिकावासी भगवान् अवश्य ही स्वीकार कर लेंगे । 

ऐसा दृढ़ निश्चय करके भक्तराजने सात सौ रुपये ले लिये और हुण्डी लिखकर उन्हें दे दी।

हुण्डी

सिद्धिश्री परमशोभाधाम श्रीद्वारिकानिवासी प्रियतम प्राणाधार सेठ श्रीशामलशाह वसुदेवकी सेवामें सप्रेम प्रणाम । आगे निवेदन है कि मैंने यहाँपर इन चार यात्रियोंसे नगद सात सौ रुपये लेकर आपपर य दी है । अतः इस हुण्डी- पत्रको लोगोंको पूरे सात सौ रुपये नगद दे देनेकी देखते ही कृपा करें । 

जूनागढ़से आपका नम्र सेवक –

नरसिंहराम

हुण्डी लेकर चारों यात्री वहाँसे रवाना हो गये।

भगवान्‌को नैवेद्य समर्पित कर भक्तराज भगवान्से विनय करने लगे, ‘हे भक्तवत्सल भगवन् ! आपके ही विश्वासपर मैंने हुण्डी लिखी है। क्या आप उसे स्वीकार करके मेरी प्रतिष्ठाकी रक्षा नहीं करेंगे ? नाथ! मैं तो समझता हूँ कि उससे मेरी प्रतिष्ठामें तो किसी प्रकारकी हानि नहीं पहुँचेगी; बल्कि जगत्में आपकी ही हँसी होगी।

दयालु दामोदर ! क्या आपको खबर नहीं है कि कलसे दो दिनपर्यन्त सारी जातिको भोजन कराना पड़ेगा? इसी कारण मैंने यह धृष्टता की है और वह भी केवल सात सौ रुपयेके लिये। जगन्नाथ ! आपके भण्डारमें सात सौ रुपयोंकी क्या बात है?

आपने मरणोन्मुख गजेन्द्रको प्राणदान दिया था, सती पांचालीको भरी सभामें अक्षय चीर प्रदान करके उसकी लाज बचा ली थी। इतना ही नहीं, प्रत्युत मेरे ही पुत्रके विवाहमें, पिताजीके श्राद्धमें तथा अन्य व्यावहारिक प्रसंगोंपर आपने मेरी सहायता की है। क्या इन सात सौ रुपयोंका प्रबन्ध आप नहीं कर सकेंगे ?’

प्रार्थना करते समय भक्तराजके नेत्रोंसे अनुप्रवाह चल रहा था। इतना कहकर वह भगवान्की प्रतिमाके चरणोंमें लोट गये। वह कबतक इस स्थितिमें पड़े रहे, इसकी उन्हें स्वयं भी खबर न रही।

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To be Continued …….

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जय श्री हरि!