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गतांक से आगे…
चारों तीर्थयात्री यथासमय द्वारिका पहुँच गये। उन्होंने भगवान् द्वारिकाधीशके दर्शन करनेके पश्चात् हुण्डीका रुपया लेनेके लिये सेठ शामलशाह वसुदेवकी खोज करना शुरू कर दिया। बाजारमें पूछनेपर किसीने उस व्यापारीका पता नहीं बतलाया । तीर्थयात्री बड़े चक्कर में पड़े। उनके मनमें शंका हुई, उन्होंने सोचा, कहीं उस भगतने हमलोगोंके साथ ठगी तो नहीं की। यदि ऐसा हुआ तो ?…. जूनागढ़में तो उसका घर है ही; वहाँसे कहाँ जायगा ? वहाँ तो उसे रुपया देना ही पड़ेगा । परन्तु वह देखनेमें तो सत्पुरुष मालूम होता था – वह धोखा कैसे दे सकता है? लेकिन यहाँ तो शामलशाह सेठका कोई नाम – निशान भी नहीं है ।
इस तरह विचार करते हुए उन्होंने सेठकी खोज करनेमें सारा दिन व्यतीत कर दिया, परन्तु किसी मनुष्यने उस सेठका नामनिशानतक नहीं बतलाया । यात्री बड़े निराश हुए। उन्होंने सोचा, अब यहाँ सेठका पता मिलना कठिन है। जूनागढ़ चलकर रुपया वसूल करना चाहिये ।
दूसरे दिन अमावस्याका पर्व होनेके कारण द्वारिकामें यात्रियोंकी बड़ी भीड़ हो रही थी । पण्डे लोग अपने यजमानोंके पाप-निवारणार्थ उन्हें विधिपूर्वक गोमतीमें स्नान करा रहे थे। भगवान्के दर्शन-पूजनके लिये लोग मन्दिरमें टूटे पड़ते थे । सर्वत्र ‘गोमती मैयाकी जय’ और ‘भगवान् द्वारिकाधीशकी जय’ की ध्वनिसे आकाश गूँज रहा था।
इसी समय भक्तवत्सल भगवान् भूधर भक्तका कार्य करनेके लिये सेठके रूपमें प्रकट हो गये । उनके साथ मुनीमरूपमें अक्रूरजी अपने साथ बही-खाता और कलम-दावात लिये हुए थे। उन्होंने मन्दिरके पास ही एक छोटेसे चबूतरेपर अपना आसन जमा दिया ।
इधर चारों यात्री गोमती – स्नान करके भगवान्के मन्दिरमें आये। वे भगवान्के दर्शनकर मन्दिरसे निकले और जूनागढ़ चलनेका विचार करने लगे। मन्दिरसे चलते ही रास्ते में उनकी दृष्टि इस नयी गद्दीपर पड़ी। उन्होंने सोचा, चलते-चलते जरा यहाँ भी पूछ लें।
उनमेंसे एकने प्रश्न किया- ‘सेठजी ! आपका शुभ नाम क्या है ?”
‘मेरा नाम है शामलशाह वसुदेव ।’ सेठस्वरूप भगवान्ने उत्तर दिया ।
यह सुनते ही यात्रियोंके सूखे हृदयपर आशाकी अमृतवर्षा हो गयी । अनायास सेठजीके मिल जानेसे उन्हें अपार आनन्द हुआ। उन्होंने तुरन्त सेठजीके हाथमें हुण्डी दे दी। सेठजीने हुण्डी देखकर उसे मुनीमके हाथमें दे दी और सात सौ रुपये चुका देनेकी आज्ञा भी दे दी। मुनीम अक्रूरजीने पूरे सात सौ रुपये गिनकर यात्रियोंके सम्मुख रख दिये ।
यात्रियोंने रुपये गिनकर ले लिये और हुण्डीपर भरपाई कर दी। रुपये प्राप्त कर यात्रियोंने नरसिंहरामकी बड़ी प्रशंसा की और उनका सारा हाल सेठरूपधारी भगवान्को सुनाया ।
भगवान्ने भी भक्तकी प्रशंसा करते हुए कहा – ‘नरसिंहरामजी मेरे परमस्नेही हैं, मैं तो उनका एक आज्ञाकारी हूँ । –
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने भक्तवर नरसिंहरामकी हुण्डी स्वीकार कर भक्तकी प्रतिष्ठाकी रक्षा की और अपनी भक्तवत्सलताके यशको अक्षुण्ण रखा ।
गोविंद गोपाल कि जय !🙏🏻
जय श्री हरि!
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