माँ अपना सारा कार्य काज देख कर कक्ष में प्रविष्ट हुई तो महादेव अभी जाग रहे थे। थोड़ी हैरानी के साथ लेकिन मुस्कुरा कर माँ ने शिव की ओर देखा।

“देवी बहुत ही थक गयी है। बहुत सारे दिनों से देख रहा हूँ, आपने बिल्कुल भी विश्राम नही किया।”

“महादेव, इस से पहले केवल विश्राम ही तो किया है। जिस जीवन में आपकी सेवा ना हो, वो तो गहन उदासी में ही चला जाता है। मुझे आपकी सेवा में कभी कोई थकावट नही होती, बल्कि मेरी क्षमता बढ़ जाती है। जब आपकी सेवा में होती हुँ तो मेरे सोचने और मेरे कार्य करने का ढंग ही बदल जाता है। आपकी सेवा मेरी ऊर्जा का स्रोत है।” माँ ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा

“आप थोड़ा विश्राम कर लीजिए, आज बहुत क्षीण लग रही है।”

“आप बिल्कुल ठीक कह रहे है, आज वास्तव में मेरे शीश में थोड़ा दर्द है। शायद थकान होगी।” माँ ने अपने शीश को दबाते हुए कहा

महादेव प्यार से देवी के शीश को हल्के से दबाने लगे।

“कृपया महादेव, ऐसे ना करे, मुझे अपराधी ना बनाए।” माँ ने शीश को थोड़ा सा एक तरफ़ करते हुए कहा 

“नही देवी, मैं तो उस पुण्य का भाग ले रहा हूँ जो आप मेरी सेवा करके अर्जित करती है।”

ऐसा कह कर महादेव और माँ दोनो ही ठहाका लगा कर हँस पड़े।

“वाराणने, आपको इतना तो पता है ना कि मैं, आप से स्वयं से भी अधिक प्रेम करता हूँ और यह प्रेम कभी कम नही होगा। छोटा सा संसार है हमारा, यही मुझे प्रिय है। कभी भी जीवन में कैसे भी क्षण आयें लेकिन आप का स्थान मेरे हृदय में है और उस स्थान की स्वामिनी केवल आप हो।” महादेव ने माँ का शीश हल्के हल्के से दबाते हुए कहा 

“क्या बात आज हमारे विरक्त महादेव इतने भावुक कैसे हो रहे है? वो भी मंगल अभिषेक से पहले…”

“जीवन में ऐसे अवसर बहुत कम होते है, जब हम अपने अतिप्रिय जनों से अपनी प्रसन्नता और प्रेम व्यक्त करते है। तो जब अवसर मिले, अपनी अच्छी भावनायों को व्यक्त कर देना चाहिए। अन्यथा तो हम अपनी कटुता ही व्यक्त करते है।”

शीश में दर्द की वजह से और मंगल अभिषेकम की सुबह की प्रतीक्षा में माँ ढंग से रात्रि का विश्राम भी नही कर पायी।

सुबह सुबह सभी के वायु रथ मानसरोवर की ओर चल पड़े।

गणेश और कार्तिक, सुसज्जित १५ देवी नित्याएँ, नंदी व शेष तथा महल के सभी प्रमुख सेवक-सेविकाएँ अपने भिन्न भिन्न वायु रथों और विमानों पर सवार हो, अमूल्य पूजा की सामग्री लेकर मानसरोवर के स्थल की ओर उड़ चले थे। वहाँ पहले पहुँच कर उन्हें आमंत्रित अतिथियों का स्वागत भी करना था और सभी मंचों की व्यवस्था पर एक अंतिम नज़र भी डालनी थी।

इन सभी के वहाँ पहुँचने से पहले मानसरोवर में हर्षित प्रजा, नगर निवासी, गण, विभिन्न योनि के पिशाच, भूत आदि सब अपने नियत स्थान पर बैठ चुके थे। सभी का यथा योग्य सम्मान किया गया था।

सबसे पहले राज भवन के प्रमुख मंत्रियों और सेविकायों के रथ मैदान पर उतरे। सब पर पुष्प वर्षा हो रही थी लेकिन सभी अपना कार्य भार सम्भालते हुए शीघ्रता से अपने स्थान की ओर बढ़ रहे थे।

अब जिन जिन का रथ एवं विमान कार्यक्रम स्थल पर प्रवेश हो रहा था, उनके स्वागत में पहले उनके आगमन की घोषणा हो रही थी। सभी जन उनका तालियों से और पुष्प वर्षा करके स्वागत कर रहे थे।

नंदी और वासुकि का वायु रथ नीचे उतरा। सभी जनों ने प्रेम से फूल बरसाते हुए नारे लगने शुरू किए

“शिव अंगों की जय हो! महादेव के भक्तों की जय हो!”

अपने शीश और हाथों से सभी के अभिनंदन का उत्तर देते हुए वे मुस्कुराते हुए शीघ्रता से अपने मंच की ओर बढ़ गये।

जैसे ही गणेश और स्कंद का विमान नीचे उतरा तो मृदंग बजने लगे और मंत्रों का उच्चारण होने लगा।

पुष्प वर्षा करते हुए गाया जा रहा था__

गणेश के लिए:-

गणनायकाय गणदेवताय, गणाध्यक्षाय धीमहि
गुण शरीराय-गुण मण्डिताय, गुणेशानाय धीमहि
गुणाधिताय गुणाधीशाय, गुना प्रविष्टय धीमहि
एकदंताय वक्रतुण्डाय, गौरी तनय धीमहि, गजेशानाय भालचन्द्राय, श्री गणेशाय धीमहि।।

कार्तिकेय के लिए :

ॐ शारवाना-भावाया नमः।।
ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा वल्लीईकल्याणा सुंदरा।
देवसेना मनः काँता कार्तिकेया नमोस्तुते।।
ॐ सुब्रहमणयाया नमः।।

कार्तिक और गणेश ने सबसे पहले आते ही मंगल अभिषेक के पूजनीय स्थल को दण्डवत् प्रणाम किया। सभी मंचों की ओर देखते हुए विनय पूर्वक हाथ जोड़ कर सभी का धन्यावाद किया। सभी गण और भूत, अपने राज कुमारों को देख कर प्रेम से नाचने लगे। उनके जैसा ही हल्के से नृत्य का अभिनय करते हुए, गणेश ने हँसते हुए सभी को बैठने का संकेत किया। गणेश सभी के साथ थोड़ा ज़्यादा घुल-मिल कर रहते थे। कार्तिक और गणेश अपने अपने आसन पर विराजमान हो गये। इतने सम्मान और उच्च पद के बाद भी, इतनी विनम्रता से सभी में सामान्य होकर रहना सहज नही होता। यही तो महादेव की अपने पुत्रों से अपेक्षा थी।

इसके बाद १५ नित्या देवियों के आने की घोषणा हुई। जैसे ही १५ श्री नित्या देवीयों के अलग अलग विमान आए। तो उनके स्वागत के लिए सभी जन खड़े हो गए। नागाड़ों और मृदंगों के मिश्रित संगीत से उनका स्वागत किया जा रहा था। उन्हीं के नाम के अनुसार उनके गायत्री मंत्रों को एक मधुर लय में गाया जा रहा था। उन पर पुष्प वर्षा के साथ साथ केसर के फूलों की वर्षा भी की जा रही थी। यह वह अवसर था कि जब कोई भी बिना किसी जटिल तप के अपनी जन्मों की अभीष्ट साधना को सिद्ध कर सकता था क्यों कि उसकी आराध्य देवी उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन दे रही थी। अब तो केवल मन में संकल्प मात्र ही धारण करना था। सभी नित्याएँ माँ के स्वरूप में ही थी और बहुत ही रूपवान लग रही थी। केवल उनके वस्त्रों के रंग और उनके केशों में लगे पुष्प ही उनका परिचय दे रहे थे। जब वे अलग अलग पूजा सामग्री लेकर, सुगंधित पुष्प मार्ग पर एक साथ चल रहीं थीं तो सम्मान वश सभी प्रत्याशियों के हाथ स्वतः ही जुड़ गए और नेत्र बंद हो गये। कुछ क्षण के लिए वहाँ सब शांत हो गया। सभी असीम आनंद का अनुभव कर रहे थे।

सभी देवियों ने सभी मंचों पर बैठे जनों को दूर से ही आशीर्वाद दिया और दिव्य श्री यंत्र मंच पर अपने अपने आसन पर विराजमान हो गयीं।

अभी १५ नित्या देवियाँ आसन पर विराजमान हुई ही थीं कि घोषणा हुई कि देवी सरस्वती और श्री ब्रह्मा का हंस विमान मुख्य द्वार तक आ चुका है। जब ब्रह्मा जी और देवी सरस्वती का आगमन हुआ तो असंख्य वीणायों के संगीत से उनका स्वागत हुआ और पुष्प वृष्टि के साथ वेद मंत्रों से स्वागत किया गया।

श्री ब्रह्मा के लिए:-

ऊँ वेदात्मने विद्महे, हिरण्यगर्भाय धीमहि, तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।।

ऊँ चतुर्मुखाय विद्महे, कमण्डलु धाराय धीमहि। तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।।

ऊँ परमेश्वर्याय विद्महे, परतत्वाय धीमहि। तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।।

देवी सरस्वती के लिए:

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।

या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना॥

या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।

सा माम् पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥1॥

शुक्लाम् ब्रह्मविचार सार परमाम् आद्यां जगद्व्यापिनीम्।

वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्॥

हस्ते स्फटिकमालिकाम् विदधतीम् पद्मासने संस्थिताम्।

वन्दे ताम् परमेश्वरीम् भगवतीम् बुद्धिप्रदाम् शारदाम्॥2

श्री ब्रह्मा बहुत ही रूपवान वयस्क, सुडौल लेकिन गम्भीर प्रवृति के थे। लेकिन आज उनके श्री मुख पर हल्की सी मुस्कुराहट देखी जा सकती थी। और माँ सरस्वती अति रूपवान, सौम्य शील और करुणमयी युवती थीं। लगभग ५’८ इंच की लम्बाई, अत्यधिक घने लम्बे बाल,  गौर वर्ण, तीखी नाक, बहुत बड़े और आकर्षित नेत्र लेकिन उनके नेत्र हरे रंग के थे जिनकी दृष्टि भर से पूरी प्रकृति थम सकती थी। महीन श्वेत वस्त्रों में और कुंदन-पन्ने के आभूषण पहने मंद मंद मुस्काती हुई माँ शारदा चल रही थीं। माँ के श्री मस्तक पर हरे रंग का पन्ने का माँग टिका और कुंदन की बिंदी ऐसे शोभा दे रहे थे, मानो एक शांत हिम शिला पर हरे रंग का झरना बह रहा हो। और माँ लज्जा वश अपनी मनमोहक दृष्टि नीचे की ओर करते हुए सहज भाव से चल रही थी। अकल्पनीय !!! माँ के दर्शन मात्र से सारी अभिलाषाएँ पूरी हो गयी थीं। गणेश-कार्तिकेय और सभी नित्या देवियों ने एक भव्य अतिथि पूजा और आरती के बाद सुसज्जित आसन पर दोनो को विराजमान करवाया। इतना भव्य और दिव्य दर्शन था कि उसके लिए शब्द कोष में शब्द समाप्त हो गए थे।

दूर बैठे एक ब्रह्म राक्षस ने एक पिशाच के कानों में कहा, “जब मैं मनुष्य योनि में था, तब मैंने देवी सरस्वती की बहुत उपासना की थी। और विश्व प्रसिद्ध गायक था। हमारी आराध्य देवी माँ सरस्वती ही होती थीं। लेकिन अपने कूकर्मों और अहं के कारण मेरी उपासना अधूरी रह गयी। दोबारा ना संयोग बना और ना ही कृपा हुई। अब मुझे पाँच करोड़ जन्म लेने के बाद यहाँ शरण मिली। देखो, मैं कितना ही भाग्यशाली हुँ कि अब महादेव की कृपा से चिंतामणि गृह के श्मशान में वास करता हुँ और माँ शारदा अम्बा के दर्शन भी यहाँ हो गये। उस समय की अधूरी साधना आज देवी सरस्वती के प्रत्यक्ष दर्शन से पूर्ण भी हुई है और सफल भी।” 

देवी शारदा की ओर अपलक देखता हुआ, अभी वो यह बात कान में फुसफुसा ही रहा था कि माँ ने एक मुस्कुराहट वाली एक गहरी दृष्टि उस पिशाच पर डाली। और अपने बाएँ करकमल को थोड़ा उठा कर उसे आशीष दिया। तो वह ब्रह्म राक्षस ‘धन्य धन्य’ कहता हुआ मंच तल पर ही दण्डवत् प्रणाम करने लग गया। इस प्रकार अंगणित ही ऐसे कितने ही जन थे जो अपने आराध्य को साकार रूप में देख कर पुलकित हो रहे थे।

इस समारोह में देवी जगतजननी ने आतिथ्य का एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया था। आज इस समारोह में ऐसा कोई जन नही था जिस का यथा योग्य स्वागत ना किया गया हो। अपने अतिथि को विशेष महसूस करवाना भी ईश्वर की पूजा का एक अंग है।

कुछ ऐसी विशेष घोषणा हुई कि असंख्य शंखों का वादन शुरू हो गया क्यों कि…

To be continued…

           सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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