एक दिन देवी वामकेशी, माँ के पास कुछ और इच्छा लेकर, प्रार्थना करने गयी तो उन्होंने भीतर से माँ और नंदी की परस्पर बात-चित सुनी।
“पुत्र नंदी, यह कार्य अनिवार्य है, नही तो अनर्थ हो जाएगा। शीघ्र तलाश करो। मैं इतनी असावधान कैसे हो सकती हूँ?”
“जी माँ अम्बा, मैं पूर्ण प्रयास करता हुँ। परंतु अगर महादेव…”
देवी वामकेशी को लगा कि किसी निजी विषय पर चर्चा हो रही थी तो वो द्वार से ही वापिस आ गयी और शिष्टाचार के नाते अंदर जाकर चर्चा को भंग नही किया।
और फिर उस रात्रि, जब प्रीति भोज के समय सभी एकत्रित होकर भोजन कर रहे थे तो देवी वाम केशी ने महादेव से अवसर देख कर स्वयं ही पूछ लिया, “महादेव, मुझे ज्ञात हुआ है कि माँ जगदंबा और आप में वीणा वादन की प्रतिस्पर्धा (competition) बहुत ही मनोरंजक होती है। अगर आप कृपा करें तो क्या मुझे, इस प्रतिस्पर्धा को देखने का अवसर प्राप्त हो सकता है?”
मुँह में भोजन का कौर डालते हुए, एक दम हैरानी से माँ जगदंबा और महादेव, देवी वामकेशी की ओर देखने लगे।
“केवल आप नही, बल्कि इस कृपा के अधिकारी सभी जन होने चाहिए। वैसे भी मंगल अभिषेक के बाद चिंतामणि गृह की प्रजा से एक बार भी नही मिल पाया। सभी के एकत्रित होने का सुअवसर आने वाली पूर्णिमा पर ठीक रहेगा।” महादेव ने सुन कर, स्मितमुखी होकर उत्तर दिया
सभी उपस्तिथ जन काफ़ी प्रसन्न हो गये लेकिन माँ पार्वती नही। उन्हें किसी अज्ञात चिंता ने घेर रखा था। और उस पर प्रतिस्पर्धा के अभ्यास के लिए समय की आवश्यकता भी थी। उन्हें ऐसा लग रहा था कि इस चिंताजनक समय में इस प्रतिस्पर्धा का अवसर ठीक नही था।
एकांत में माँ ने महादेव से कहा, “महादेव, क्या यह प्रतिस्पर्धा हम थोड़ी समय के बाद कर सकते है? और देवी वामकेशी की इस इच्छा की पूर्ति…?”
अभी माँ बात पूरी कर ही रहीं थीं कि महादेव बोले, “देवी, मैं जानता हुँ कि आप क्या कहना चाह रहीं है। जो भी हो रहा है, सब मेरी इच्छा से ही हो रहा है और सभी के हित में हो रहा है। ऐसा मान लीजिए।”
“जैसे भगवान आशुतोष की आज्ञा।” बिना किसी किंतु परंतु के, ऐसा कह कर माँ मुस्कुरा दी
माँ और महादेव ने वीणा वादन में अलग अलग अभ्यास आरम्भ कर दिया। वास्तव में महादेव अभ्यास करने की बजाये एकांत में कुछ सोच रहे थे। शायद यह सोच रहे थे कि माँ जगदंबा को कैसे बताया जाए कि देवी वामकेशी उन्हीं की अंश थीं। क्यों कि आतिथ्य के समय की भी एक सीमा होनी चाहिए। किसी भी विषय में अतिथि का हस्तक्षेप नही होना चाहिए। अगर ऐसा नही, तो घर के सदस्यों जैसे उत्तरदायित्व भी लेना चाहिए।
और दूसरी तरफ़ माँ भी अभ्यास, एकाग्र होकर नही कर पा रहीं थीं। बल्कि बीच बीच में माँ, नंदी और वासुकि की एकांत में किसी गम्भीर विषय पर बातचीत हो रही थी लेकिन कोई भी निष्कर्ष नही निकल रहा था। शायद नंदी और वासुकि किन्हीं महत्वपूर्ण चीजों की तलाश में थे। लेकिन यह बात अत्यन्त गोपनीय रखी जाने वाली थी।
देवी वामकेशी आने वाली पूर्णिमा के अवसर पर स्वयं के लिए विशेष वस्त्रों और आभूषणों का चयन कर रहीं थीं और होने वाली प्रतिस्पर्धा का बहुत बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहीं थीं।
अन्य जन उस दिन की प्रतीक्षा में दिन गिन रहे थे क्यों कि यह प्रतिस्पर्धा चिंतामणि गृह के मध्य में बने एक विशाल मंदिर में होने वाली थी। मंदिर का प्रांगण इतना बड़ा था कि उसमें सभी जन बहुत ही सरलता से समा सकते थे। इस प्रांगण के चारों तरफ़ गोलाकार सीढ़ियाँ बनी हुई थी और माँ जगदंबा और महादेव के आसन सबसे ऊपर लगने वाला था।
आख़िर पूर्णिमा का वो दिन आ ही गया जिसकी सभी को प्रतीक्षा थी। मंदिर के प्रांगण को सुगंधित केवड़े, नीम और ऊध के पुष्पों के जल से धोया गया। वहाँ के पेड़ों पर लालटेन के जैसे बड़े बड़े दीये लगाए गए और लाल रंग के रेशम के कपड़ों से इन पेड़ों को सजाया गया। जगह जगह सुगंधित कलियों के इत्र को छिड़का गया था। सभी के बैठने का स्थान नियत कर दिया गया और आसन लगा दिए गए।
संध्या के दूसरे पहर पर सभी अपने अपने आसन पर आकर विराजमान हो गए। देवी वामकेशी अन्य दिनों की अपेक्षा, आज अत्यधिक सुंदर लग रहीं थीं कि उन पर से किसी की नज़र नही हट रहीं थीं।
हमेशा की तरह महादेव और माँ जगदंबा सबसे अंत में एक साथ आए। महादेव और माँ जगदंबा ने अपने अपने स्थान ग्रहण कर लिए और वीणायों की तारों को अपने अपने अनुसार कस लिया। महादेव ने माँ जगदंबा की ओर मुस्कुराते हुए देखा और इशारा किया कि पहले वह आरम्भ करें।
माँ ने राग मधुवंती को छेड़ा। इस राग का नाम राग अम्बिका भी था। इसी का आलाप माँ ने अपनी मधुर आवाज़ में दिया और वीणा पर बजाने लगी। यह एक शृंगार रस राग है जो कि त्योहार के समय या बसंत मास में बजाया जाता है।
आरोह = नि़, सा, ग॒, म॑, प, नि, सां
अवरोह = सां, नि, ध, प, म॑, ग॒, रे, सा।
महादेव ने इस राग को लेकर ऐसा स्वर विस्तार किया कि महादेव की सुंदर सुकोमल उँगलियों में वीणा की तारों के गहरे निशान पड़ गये। और माँ ने इस राग की तानों को इस प्रकार बजाया कि इस राग के इस अपरिचित स्वरूप से सभी प्रभावित हो गये। इस प्रतिस्पर्धा में महादेव और माँ दोनो ही सम रहे।
फिर महादेव ने एक राग जुगलबंदी के लिए छेड़ा। इस राग का नाम था राग शिवरंजनी। इस राग की उत्पत्ति किसी अन्य दिन महादेव ने अपनी विशेष मनोदशा के अनुसार की थी। यह राग कर्ण प्रिय था लेकिन गम्भीर था।
आरोह = सा, रे, ग॒, प, ध, सां
अवरोह = सां, ध, प, ग॒, रे, सा।
माँ इस राग को सुन कर थोड़ा सा गम्भीर हो गयीं। और इस राग का ऐसा असर था कि सभी के नेत्रों में झर झर अश्रु आने शुरू हो गए। महादेव थे कि अपने नेत्र बंद करके बस इस राग को बजा रहे थे। अब माँ भी केवल महादेव को ही सुनना चाहतीं थीं तो उन्होंने जुगलबंदी को छोड़ दिया और केवल नेत्र बंद करके इस राग का आनंद ले रहीं थीं।
देवी वामकेशी को यह राग सुन कर ना जाने क्यों बेचैनी हो रही थी, उनका मन व्याकुल हो गया था। आज महादेव, माँ जगदंबा और देवी वामकेशी सभी की एक ही समय पर अलग अलग मनोदशा थी। मनोदशा ही एक ऐसी अवस्था होती है जो तय करती है कि हम कैसे हैं? कभी कभी मन, उत्सव के पलों में भी उदास हो जाता है और कभी मन सामान्य समय होने पर भी दिव्यता महसूस करता है।
जैसे ही महादेव ने इस राग को अंतिम चरण दिया तो सभी ने ‘जय हो! जय हो!’ कहते हुए महादेव को अपनी प्रणाम अर्पित की। इसी बीच बहुत ही ज़ोर से गर्जना हुई, जैसे किसी बिजली के गिरने की या बादल फटने की। सभी को लगा कि शायद किसी अन्य लोक के देवों ने भी यह प्रतिस्पर्धा देखी थी और महादेव- माँ जगतजननी को अपनी प्रणाम अर्पित कर रहे थे।
लेकिन ‘हर हर महादेव’ के नारों में यह आवाज़ दब गयी। तभी प्रसन्नता से शंख ने घोषणा यंत्र हाथ में लेकर, महादेव और माँ जगदंबा का धन्यावाद किया, जिन्होंने अपनी प्रजा पर इतनी कृपा की थी। और साथ ही में देवी वामकेशी का भी धन्यावाद करते हुए कहा, “हम सभी की ओर से देवी वामकेशी को कोटि कोटि नमन। हम चिंतामणि गृह निवासी आपको आतिथ्य अर्पित करके अति धन्य हुए क्यों की आप ही की इच्छा, हम सब पर कृपा का कारण बनी। जो दिव्य कला आज तक केवल माँ जगदंबा और महादेव के एकांत तक सीमित थी। आज आप ही के कारण उसी कला का हमें दिव्य साक्षात्कार हुआ। आशीर्वाद दीजिए कि आपको आतिथ्य अर्पित करने का अवसर हमें बार बार प्राप्त हो!”
शंख की बात सुन कर, महादेव के मुखारविंद पर एक बड़ी मुस्कुराहट आ गयी। उन्हें लगा उनका काम सरल हो गया लेकिन देवी वामकेशी के मुख पर…
To be continued…
सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।
अगला क्रमांक आपके समक्ष 27th-Aug-2021 को प्रस्तुत होगा।
The next episode will be posted on 27th-Aug-2021.
I offer many thanks to Mr. Kamaldeep Singh Ghuman for his unique guidance about Raagas. He is my vocal music teacher. He is also special because he has had the honour of performing his art at the Ashram temple for Sri Hari on many special occasions.
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